नई दिल्ली. भ्रष्टाचार से खिसक कर पार्टियों का फोकस सिर्फ सांप्रदायिकता पर आ गया है। हाल ही में अरविंद केजरीवाल
ने सांप्रदायिकता को भ्रष्टाचार से ज्यादा गंभीर बताया। लेकिन लुधियाना से
टिकट देने की बारी आई तो उन्होंने एचएस फूलका को चुना। 1984 के दंगों के
शिकार लोगों की पैरवी करने वाले सिख वकील। सीएसडीएस के अरविंद मोहन कहते
हैं 'सभी पार्टियां टिकट देते समय क्षेत्र के धार्मिक समीकरणों को ध्यान
में रख टिकट देती हैं। वे भी जो खुद धर्म और पंथनिरपेक्षता का ढिंढोरा सबसे
ज्यादा पीटती हैं।' ऐसे में वोट बैंक के असर के साथ 'भास्कर' ने देश में
पहली बार सवर्ण हिन्दुओं के दबदबे की सीटवार खोज की।
सिख - 16 सीटें
पंजाब, राजस्थान की गंगानगर, हरियाणा की सिरसा और चंडीगढ़ सीट पर सिख 20 फीसदी से ज्यादा हैं।
बठिंडा और लुधियाना जैसी कई सीटों पर हमेशा सिख उम्मीदवार ही चुनाव
जीतते आए हैं। इन दोनों सीटों में 75 फीसदी से ज्यादा सिख वोटर हैं।
क्रिश्चियन - 16 सीटें
प्रमुख रूप से नॉर्थ-ईस्ट राज्यों में, गोवा और केरल में।
दक्षिण गोवा सीट पर ईसाई ही चुनाव जीतते आए हैं। 37.9 फीसदी ईसाई
आबादी वाली इस सीट पर चाहे कांग्रेस हो या फिर क्षेत्रीय यूनाइटेड गोवा
पार्टी, ईसाई ही मैदान में उतारे। सिर्फ 1999 में भाजपा के रमाकांत आंगले
ही अपवाद हैं, जिन्होंने ईसाई न होते हुए भी यहां से चुनाव जीता।
केरल की एर्नाकुलम सीट पर 38.8 फीसदी ईसाई वोटर हैं। यहां भी कांग्रेस
हो, या लेफ्ट या फिर निर्दलीय। हमेशा ईसाई ही लड़े और जीते भी।
मुस्लिम - 92 सीटें
प्रमुख रूप से उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, आंध्रप्रदेश, केरल में।
असम की धुबड़ी सीट पर हमेशा मुस्लिम ही चुनाव जीतता आया है। 67 फीसदी
मुस्लिम आबादी है यहां। कश्मीर और लक्षद्वीप के बाद सबसे ज्यादा। ऐसे में
कोई भी पार्टी हो, मुस्लिम उम्मीदवार ही उतारती है। पिछली बार यहां से
एयूडीएफ के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल जीते। उनकी पार्टी ने कांग्रेस के
मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगा दी है।
बिहार की अररिया सीट। 49 फीसदी मुस्लिम आबादी। पिछले चुनाव में 25
उम्मीदवार मैदान में थे, जिनमें से सात मुस्लिम। ऐसे में भाजपा ने प्रदीप
कुमार सिंह को टिकट दिया। क्योंकि सभी मुस्लिम उम्मीदवार एक-दूसरे का वोट
काट रहे थे। नतीजतन सिंह ने लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी के जाकिर हुसैन को
दो हजार वोटों से हरा दिया।
सवर्ण हिंदू - 125 सीटें
ये वोट बैंक नहीं है, फिर भी कुछ सीटों पर किसी भी धर्म और जाति से परे पार्टियां और लोग सवर्णों को ही चुनते हैं
शिया मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी लखनऊ में रहती है। इस लोकसभा
क्षेत्र में भले ही 21 फीसदी मुस्लिम वोट हो, लेकिन आजादी के बाद से ही
यहां सभी पार्टियों ने अधिकतर उम्मीदवार हिंदू ही उतारे। कभी श्योराजवती
नेहरू, कभी हेमवती नंदन बहुगुणा, तीन बार शीला कौल तो पांच बार अटल बिहारी
वाजपेयी जीते।
इलाहाबाद में पं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी, अमिताभ बच्चन,
वीपी सिंह से लेकर कुं. रेवतीरमन सिंह तक सभी सांसद हिंदू और उच्च वर्ग के
रहे। धार्मिक नगरी में भले ही मुस्लिम आबादी १६ फीसदी हो, लेकिन हर पार्टी
दांव सिर्फ सवर्ण हिंदुओं पर लगाती रही हैं।
इसी तरह इंदौर में पिछले 45 वर्ष से सवर्ण ही चुनाव जीत रहे हैं। पहले
कांग्रेस से प्रकाशचंद्र सेठी और उसके बाद भाजपा की सुमित्रा महाजन।
सवर्ण हिंदुओं के प्रभुत्व वाली सीटों का अध्ययन इसलिए अहम है क्योंकि
देश की 79 सीटें अनुसूचित जाति के लिए और 42 सीट जनजाति के लिए आरक्षित
हैं। इनमें से कुछ जातियों को भी हिन्दू माना जाता है। लेकिन बाकी बची 422
अनारक्षित सीटों पर इन जातियों और पिछड़ी जातियों के लोग भी चुनाव लड़ सकते
हैं।
लोकसभा
की 543 में से 172 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम, सिख और ईसाई वोटर अहम
भूमिका में हैं। लेकिन 125 सीटें ऐसी हैं, जहां वोटर किसी भी धर्म या जाति
के हों, चुनाव हमेशा सवर्ण हिंदू ही जीतते आ रहे हैं। यानी लोकसभा की आधी
से ज्यादा सीटों के चुनाव में धर्मिक ध्रुवीकरण अहम है।
देश में करीब 125 सीटें ऐसी हैं जिन पर शुरुआत से सवर्ण हिन्दू ही
चुनाव जीतते आ रहे हैं। इसके पीछे यह कारण कतई नहीं है कि इन सीटों पर
सवर्ण हिन्दू की बहुलता है। कई जगह तो मुस्लिम और पिछड़ी जातियों की संख्या
ज्यादा होने के बावजूद सवर्ण हिन्दू ही चुनाव जीतते रहे।
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