शुक्रवार, दिसंबर 06, 2013

मंदिर की सियासत कैसे बनी सत्ता की सीढ़ी?

नई दिल्ली। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचे पर छिड़ी सियासत ने उस विवादित ढांचे की ही बलि ले ली और देश सांप्रदायिक उन्माद के नए दौर में प्रवेश कर गया लेकिन इस दौर के बीज तो दो साल पहले ही बो दिए गए थे। 90 के दशक में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने मंडल आंदोलन की आग में सुलग रहे देश को कमंडल की सियासत की तरफ मोड़ दिया। आगे बीजेपी, पीछे वीएचपी और संघ। इस कमंडल ने बीजेपी को सत्ता के द्वार तक पहुंचा दिया। पार्टी का उद्देश्य पूरा हुआ। सत्ता का स्वाद तो चख लिया लेकिन राम मंदिर का नारा वक्त के साथ ठंडा पड़ता गया।
2 से बढ़कर 120 पर पहुंची बीजेपी
वीएचपी के राममंदिर आंदोलन में बीजेपी खुलकर कूदी तो उसको इसका फायदा भी मिला। 1984 में जो बीजेपी लोकसभा में महज 2 सांसदों वाली पार्टी थी 1991 में वही पार्टी 120 सीट जीतकर बड़ी सियासी ताकत बन गई। 1992 के बाद राम मंदिर आंदोलन की वजह से हुआ वोटों का ध्रुवीकरण इस कदर बढ़ा कि 1996 के आमचुनाव में बीजेपी 161 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बन गई। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा तक पेश कर दिया, हालांकि 13 दिन बाद बहुमत साबित न कर पाने की वजह से अटल सरकार गिर गई।
अटल बिहारी वाजपेयी 1998 में फिर सत्ता में लौटे जब 182 सीट वाली बीजेपी एनडीए गठबंधन के जरिए सरकार बनाने में कामयाब हो गई। अटल सरकार 13 महीने तक सत्ता में रही। माना गया कि ये वोटों के ध्रुवीकरण के उस प्रयोग की सफलता थी जिसे 80 के दशक के मध्य में सबसे पहले वीएचपी ने शुरू किया।
वीएचपी ने शुरू किया बड़ा आंदोलन
अक्टूबर 1984 में वीएचपी ने अयोध्या में मंदिर के लिए रामजन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया। 8 अक्टूबर 1984 को अयोध्या से लखनऊ की 130 किलोमीटर की यात्रा से आंदोलन शुरू हुआ। 1986 में वीएचपी ने मंदिर आंदोलन को बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया। 1989 में वीएचपी ने विवादित स्थल के नजदीक ही राम मंदिर की नींव रख दी। 1989 में वीएचपी के आंदोलन को तब बड़ा मंच मिला जब बीजेपी उसके साथ खड़ी हो गई।
बीजेपी भी आंदोलन में कूदी
जून 1989 में बीजेपी ने पालमपुर प्रस्ताव में मंदिर आंदोलन के पक्ष में खड़े होने का फैसला किया। बीजेपी के कूदने के बावजूद तबतक वीएचपी ही आंदोलन की अगुवा थी। 1989 के आम चुनाव से ठीक पहले राजीव गांधी सरकार ने वीएचपी को मंदिर के लिए अयोध्या में 9 नवंबर को शिलान्यास की इजाजत दे दी। इसे वीएचपी की बड़ी सफलता माना गया लेकिन माहौल ऐसा बन गया था कि इस दौर में देश ने सांप्रदायिक दंगों का सबसे भयंकर दौर देखा। 22 से 24 नवंबर 1989 को आम चुनाव से पहले हिंदी प्रदेशों में दंगों में करीब 800 लोगों की जान चली गई। बीजेपी को 88 सीटें मिलीं जिसके समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। अब धीरे-धीरे आंदोलन की कमान बीजेपी के हाथ आने लगी थी।
आडवाणी की रथयात्रा
सितंबर 1990 में बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने मंदिर आंदोलन के समर्थन में यात्रा शुरू की। 1990 में वीएचपी और साथी संगठनों ने शिला पूजन, राम ज्योति यात्रा जैसे कार्यक्रमों से माहौल गरमा दिया। 1990 में विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं पर विवादित ढांचे को नुक़सान पहुंचाने का आरोप लगा।
तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की बातचीत से मसला सुलझाने की कोशिशें नाकाम हो गईं, वीएचपी राममंदिर से कम किसी चीज पर भी समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी। 1990 के दौर में समूचे देश में खासकर उत्तर भारत में राम मंदिर आंदोलन की हवा बह रही थी।
हालांकि बीजेपी इस आंदोलन में अब सक्रिय रूप से भागीदार थी लेकिन उसके नेताओं ने खुद को सियासत के दायरे में रखा। वीएचपी की ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, तब बजरंग दल में शामिल विनय कटियार जैसे नेताओं के उग्र भाषणों ने देश के मतदाताओं में भी गहरा ध्रुवीकरण कर दिया था।
1991 के उस दौर के बाद 1992 में क्या हुआ ये कोई छुपी हुई बात नहीं है। इसके बाद बीजेपी को मिली चुनावी सफलता के पीछे भी इसी आंदोलन का हाथ माना जाता है। ये भी सच है कि 1992 के बाद तीन बार बीजेपी की सरकार बनी लेकिन गठबंधन धर्म का हवाला देकर राम मंदिर मुद्दा भुला दिया गया। यही वजह है कि लंबे अरसे बाद वीएचपी को राम मंदिर की याद आई है तो किसी को ताज्जुब नहीं हो रहा है। विरोधियों का आरोप है कि बीजेपी-वीएचपी के जरिए फिर 90 के दौर का माहौल जिंदा करने की फिराक में है।

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