सोमवार, मई 16, 2011

प्रेम और मोह


परमशक्ति का जब तक आभस नहीं होता तबतक विश्वास नहीं होता। विश्वास होना ही वास्तविक विश्वास है। इसलिए जब तक परमशक्तिका ज्ञान न हो तब तक उसमें विश्वास नहीं होता। बिना विश्वास के प्रीति अर्थात प्रेम नहीं होता। जिस प्रकार परमशक्तिके बिना किसी वस्तु में परमशक्ति का विश्वास रखना छलावा है। उसी प्रकार उस वस्तु से प्रेम करना भी भूल अथवा मोह है। मोह-रहित प्रेम से परमशक्तिकी प्राप्ति होती है, क्योंकि उस दिव्य शक्ति के अभाव में प्रेम हो ही नहीं सकता। एक जीवधारी के अंतरूकरण में परमपिता परमात्मा से मिलने की उत्कट् इच्छा उत्पन्न होती है। वह तीव्र इच्छा ही प्रेम है। वह प्रेमी प्रेम के रूप की प्राप्ति करना चाहता है, किंतु जब तक प्रेमरूपईश्वर न मिले, वह प्रेम किससे करे, कैसे करे, कैसे उसकी इच्छा पूर्ण हो? वह अपने ईष्ट को ढूंढताहुआ, जब देखता है कि लोग उस परमेश्वर के दर्शन करने के लिए मंदिरों में जाते हैं। भगवान को स्नान कराते हैं, उनको भोग लगाते हैं, तथा उनका गुणगान करते हैं। वह चाहता है कि भगवान उससे वार्तालाप करें और उनके वचनामृतमें अपनी प्यास बुझाएं। जब वह सुनता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने नर-तन धारण कर गोकुल-वृंदावन में अपने भक्तों को लीला दिखाई थीय राम ने अयोध्या में अवतार लिया था तब वह उन स्थानों पर जाता है किंतु उसे मन की शांति नहीं मिलती। किंतु कहीं भी दर्शन नहीं प्राप्त कर पाता। कभी रोता है तो कभी अपने ईश्वर का आह्वान करता है। वास्तव में जो मनुष्य जिससे प्रेम करना चाहता है, उसके रूप को जाने बिना उसे वह प्रेम नहीं कर सकता। यदि होता भी है तो वह प्रेम नहीं बल्कि मात्र मोह है। प्रेम का परिणाम आनन्द और मोह का परिणाम दुरूख होता है। प्रेम अटल-अविनाशी और मोह नाशवान होता है, मोह के भाव का अभाव हो जाता है। यही प्रेम और मोह की पहचान है। अंदर का मोह तभी नष्ट होता है जब वह प्राणी परमपुरुष में मन लगाता है। वही सच्चा वैरागी है और वही सच्चा साधु है, जिसका मन जितना परमेश्वर की ओर लगता जाता है उतना ही सांसारिकता की ओर से हटता जाता है। जब संसार के साथ राग होता है तब उसे मोह कहते हैं और जब वही राग जगदीश्वरसे हो जाता है तब वह प्रेम की कोटि में रेखांकित होने लगता है।

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