मंगलवार, फ़रवरी 09, 2010
आम आदमी का दर्द समझा
एक बार इस्लाम धर्म के प्रसिद्ध विद्वान हजरत अबू बकर सिद्दीक को मदीना का वजीर नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति के बाद बादशाह के सामने एक समस्या खड़ी हो गई वह यह कि इतने बड़े विद्वान की तनख्वाह कितनी हो? वहां का बादशाह इस पर कोई निर्णय नहीं ले सका। काफी देर विचार विमर्श के बाद अंत में यह निर्णय हुआ कि श्री सिद्दीक से ही पूछ कर उनका वेतन तय किया जाए। बादशाह खुद उनके पास गए और उनके सामने अपनी परेशानी को बताया। अबू बकर ने कहा, जहांपनाह, यह तो कोई समस्या है नहीं। मैं कोई आम आदमी से अलग तो हूं नहीं। बताइए, मदीना का एक औसत मजदूर महीने में कितना कमा लेता है? बादशाह ने कहा, तकरीबन एक दीनार तो कमा ही लेता है। अबू बकर ने कहा, ठीक है। मेरी तनख्वाह एक दीनार रखी जाए। बादशाह हैरत में पड़ गए। बोले, क्या कहा आपने? एक दीनार! इससे ज्यादा तो मेरा नौकर कमा लेता है। आपकी बराबरी एक नौकर से नहीं हो सकती। अबू बकर ने कहा, आप मेरी बात नहीं समझ रहे हैं। आपने मुझे मुल्क का वजीर इसलिए बनाया है कि मैं यहां की गरीब जनता के हित में काम करूं। देश को तरक्की पर ले जाऊं। लेकिन जब मुझे यहां के आवाम के दर्द का पता ही नहीं चलेगा तो मैं कैसे उनके हित की बात सोचूंगा। एक मजदूर के बराबर तनख्वाह लेने से मुझे इतना तो पता रहेगा कि यहां साधारण लोग किस हाल में रहते हैं। वे अपना गुजर-बसर किस तरह से करते हैं और उनकी भलाई कैसे हो सकती है। हमारी तनख्वाह ज्यादा होगी तो हमें पता ही नहीं चलेगा कि देश में क्या हो रहा है।बादशाह ने फिर जोर देकर कहा, यह नियम के खिलाफ होगा। आप की तनख्वाह एक मजदूर के बराबर नहीं हो सकती। अबू बकर ने मुस्कराकर कहा, फिक्र मत करिए। मैं हमेशा कोशिश करता रहूंगा कि यहां के मजदूरों की आमदनी जल्दी-जल्दी बढ़ती रहे। इससे मेरी तनख्वाह अपने आप बढ़ती जाएगी। यह सुनकर बादशाह लाजवाब हो गए। उन्होंने शाही खर्च में भारी कटौती कर दी।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें