लखीमपुर। 16वीं लोकसभा के लए सियासत की विसात बिछ चुकी है। दलों ने अपने महारथी रणक्षेत्र में उतार दिए हैं। तो क्या इस बार के चुनाव में भी खीरी संसदीय क्षेत्र का मिथक फिर से टूटेगा या फिर यहां का पुराना इतिहास अपने आप को दोहराएगा? ये सवाल अभी से ही लोगों के जहन में तैरने लगा है। इस संसदीय क्षेत्र का पुराना इतिहास ये बताने को काफी है कि यहां कोई लहर या कोई और फैक्टर वोटरों को रिझाने की कूवत नहीं रखता। अगर ऐसा न होता तो अब तक हुए पंद्रह चुनावों में दस बार एक ही परिवार में सांसदी न रही होती। हालांकि पिछली बार ये मिथक टूटा था, इस बार भी वही होगा या फिर जनता अपने पुराने रिकार्ड को फिर से दोहराएगी। ये आने वाला वक्त ही बताएगा। जहां तक सवाल इस क्षेत्र में मुद्दों का है तो वो जातीय समीकरणों के आगे कभी भी सिर उठा नहीं पाए।
खीरी संसदीय सीट पर 1952 से लेकर अभी तक जो पंद्रह चुनाव हुए उसके परिणाम ही ये बताने को काफी हैं कि यहां पर पिछड़ी व अन्य जातियों का वोट बैंक ही हमेशा निर्णायक की भूमिका में रहता है। इस सीट पर अब तक सबसे ज्यादा कांग्रेस का ही कब्जा रहा, जिसमें सबसे ज्यादा दस बार सांसदी एक ही परिवार में रही। 1962 से लेकर 1972 तक फिर 1980 में जहां बाल गोविंद वर्मा सांसद चुने गए, वहीं उनके बाद उनकी पत्नी उषा वर्मा 1980 के मध्यावधि चुनाव से लेकर 1989 तक खीरी की तीन बार सांसद रहीं। ये जातीय समीकरण का ही असर था कि 1991 और 1996 में जब भाजपा जीती तो उन्हें भी जातीय समीकरण ने विजयश्री दिलाई।
हालांकि यह वह दौर था, जब राममंदिर को लेकर रथ यात्र निकली थी। भाजपा के डॉ. जीएल कनौजिया लगातार दो बार सांसद रहे। यानी पिछड़ा वर्ग का वोट एक बड़ी ताकत बनकर इस संसदीय सीट पर हावी रहा। जातीय समीकरणों का ये गणित यहीं पर नहीं रुका। 1998 में बालगोविंद वर्मा के बेटे रवि प्रकाश वर्मा कांग्रेस की जगह सपा के टिकट से मैदान में उतरे तो लगातार तीन बार वर्ष 2004 तक उनको खीरी के वोटरों ने संसद तक भेजा। हालांकि साल 2009 में ये मिथक टूटा। जब यूपीए की किसान कर्जा माफी व अन्य योजनाओं के बलबूते कांग्रेस एक बार फिर इस सीट पर काबिज हुई। कांग्रेस प्रत्याशी जफर अली नकवी को जीत हासिल हुई और जातीय समीकरण धरे के धरे रह गए। तो क्या इस बार भी जातीय समीकरण का ये मिथक टूटेगा या फिर इतिहास खुद को दोहराएगा। इसका जवाब 16 मई को आएगा।
मुकाबला बहुकोणीय बना रहे विस चुनाव के नतीजे:
सांसदी के चुनाव के बारे में सियासी मुहावरा प्रचलित है कि यह चुनाव प्रत्याशी के मतदाताओं से सीधे संवाद के बजाए सिपहसालारों की बिनह पर लड़ा जाता है। लहर हो तो सिपहसालारी भी काम नहीं आती। खीरी से मौजूदा सांसद जरूर कांग्रेस के हैं, लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो मुख्य मुकाबले में सपा, बसपा और भाजपा रही। दो साल पहले हुए चुनाव में लखीमपुर सीट पर सपा के उत्कर्ष वर्मा पहले नंबर पर रहे थे और बसपा के ज्ञान प्रकाश बाजपेयी दूसरे। लड़ाई में तीसरी जगह पीस पार्टी के योगेश वर्मा ने बनाई। भाजपा कांग्रेस इसके निचले पायदानों पर रहीं, जबकि इसके कुछ ही समय पहले हुए नगर प्रमुख के चुनाव में भाजपा ने बाजी मारी थी। इसी तरह गोला सीट पर सपा के विनय तिवारी पहले और कांग्रेस के अरविंद गिरि दूसरे नंबर पर रहे। इसके बाद बसपा की सिम्मी बानो का नंबर आया। अरविंद अब बसपा के टिकट से लोकसभा की दावेदारी ठोक रहे हैं।
पलिया सीट पर बसपा की रोनी साहनी जीतीं तो सपा के केजी पटेल व भाजपा के रामकुमार वर्मा पटेल दूसरे व तीसरे नंबर पर रहे। पलिया से ही लगी निघासन सीट पर भाजपा के अजय मिश्र टैनी जीते थे। पहले रनर अप सपा के आरए उस्मानी व दूसरे रनर अप बसपा के दरोगा सिंह रहे। श्रीनगर सीट पर सपा के रामशरण ने कब्जा जमाया और भाजपा की मंजू त्यागी ने दूसरा स्थान हासिल किया। बसपा के श्रीपाल वर्मा को तीसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा। खीरी लोकसभा की सभी घटक विधानसभा सीटों पर नजर डालें तो नतीजे मिश्रित रहे। यही नतीजे अब लोकसभा चुनाव की तस्वीर बहुकोणीय मुकाबले की बना रहे हैं।
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