मथुरा। ये सियासत का रण है। जंग के इस मैदान में जनता ही जनार्दन है। लोकतंत्र में वोट की चोट ने तमाम 'राजाओं' को 'रंक' बना दिया, तो सामान्य कार्यकर्ताओं को संसद पहुंचा दिया। ब्रजभूमि से राजवंश से ताल्लुक रखने वाले तमाम राजनेताओं ने अपना भाग्य आजमाया। इसमें सिर्फ तीन राजवंशी ही जनादेश की बदौलत 'राज-पाट' पाने में सफल रहे, जबकि पांच को जनता ने 'वनवास' दे दिया।
स्वतंत्र भारत के पहले लोकसभा चुनाव से ही राजघरानों ने अपना भाग्य लोकतंत्र के मैदान में आजमाना शुरू कर दिया था। पहले चुनाव के दौरान 1951 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने भाग्य आजमाया लेकिन हार हुई। वह 52 हजार 974 वोट लेकर दूसरे स्थान पर पारी समाप्त करने में जरूर सफल रहे। चुनाव में 71 हजार 235 मत लेकर प्रो. कृष्णचंद विजयी रहे थे।
दूसरी लोकसभा के लिए 1957 में हुए चुनाव में राजा महेंद्र प्रताप ने फिर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में अपनी किस्मत आजमाई, लेकिन इस बार वह 95 हजार 202 मतों के साथ विजयी हुए। दूसरे स्थान पर रहे कांग्रेस के चौ. दिगंबर सिंह को 69 हजार 209 वोटों से संतोष करना पड़ा।
तीसरी लोकसभा के लिए चुनाव 1962 में हुए। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर राजा महेंद्र प्रताप ने तीसरी बार जनता का साथ चाहा लेकिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। तब कांग्रेस के चौ. दिगंबर सिंह ने उन्हें 26 हजार 884 मतों से पराजित किया था।
इसके बाद भरतपुर नरेश बच्चू सिंह ने 1967 में मथुरा से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव जीता। उन्हें एक लाख 72 हजार 785 वोट और उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के चौ. दिगंबर सिंह को 88 हजार 354 मत मिले। उनकी मृत्यु के बाद 1969 में हुए उपचुनाव में बच्चू सिंह के भाई राजा मानसिंह भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरे, लेकिन उन्हें कांग्रेस के चौ. दिगंबर सिंह ने ही हरा दिया।
सन् 1984 में कांग्रेस के लिए सहानुभूति लहर थी। ऐसे में पार्टी के टिकट पर कुंवर मानवेंद्र सिंह ने पहली बार किस्मत आजमाई और जीत दर्ज की। उन्होंने दो लाख 63 हजार 248 मत पाकर एक लाख, 59 हजार 848 वोट पाने वाली लोकदल-भाजपा की संयुक्त प्रत्याशी और पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह की पत्नी गायत्री देवी को हराया।
1989 में दूसरी बार भी कुंवर मानवेंद्र सिंह ने जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा और 37 हजार 713 वोटों से कांग्रेस के प्रत्याशी व भरतपुर राजघराने से ताल्लुक रखने वाले पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह को पराजित किया। 1991 में राम लहर में भरतपुर के राजा विश्वेंद्र सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा। उनकी हालत पतली रही। वह एक लाख दो हजार 385 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे। भाजपा के स्वामी सच्चिदानंद हरि साक्षी करीब डेढ़ लाख वोट पाकर विजयी हुए थे और एक लाख 41 हजार 11 वोटों के साथ बसपा के चौ. लक्ष्मीनारायण दूसरे स्थान पर रहे।
1998 के चुनाव में समाजवादी पार्टी के टिकट पर कुंवर मानवेंद्र सिंह ने तीसरी बार भाग्य आजमाया, तो इन्हें भी एक लाख तीन हजार 41 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहना पड़ा। तब भाजपा के चौ. तेजवीर सिंह ने तीन लाख तीन हजार 831 वोट लेकर अपनी जीत दर्ज कराई। बसपा के पूरन प्रकाश एक लाख 13 हजार 801 मतों के साथ दूसरे स्थान पर रहे थे।
वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में एक फिर कुंवर मानवेंद्र सिंह ने चौथी बार कांग्रेस के टिकट पर दांव खेला और सफल रहे। उन्हें एक लाख 87 हजार 400 वोट मिले और उन्होंने बसपा के चौ. लक्ष्मीनारायण सिंह व रालोद की डॉ. ज्ञानवती को हराया।
2009 के पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के ही टिकट पर कुंवर मानवेंद्र सिंह ने पांचवीं बार चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार वह 85 हजार 418 वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। इस बार रालोद-भाजपा के संयुक्त प्रत्याशी जयंत चौधरी तीन लाख 79 हजार 870 मतों के प्रथम और बसपा के पं. श्याम सुंदर शर्मा 2 लाख, 10 हजार 257 मतों के साथ दूसरे स्थान पर रहे।
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