बुधवार, नवंबर 23, 2011

तुमको खबर होने तक..


.महिमा पांच वर्ष की थी जब आनंद का आकस्मिक निधन हो गया था। आनंद शहर के बड़े ठेकेदार थे। कहा तो यह भी जाता है कि सूबे के एक मंत्री ने उन पर ट्रक चढ़वा दिया था। कविता के पिता ने विजय को विश्वविद्यालय में पढ़ाया था। वे उसे बेटे की तरह मानते थे। विजय सूचना विभाग में नौकरी कर रहे थे, एक अच्छे पद पर। विजय संवेदनशील, होनहार युवा थे। किसी कारण शादी नहीं की थी। कविता के ऊपर शोक का जो पहाड़ टूटा था, उसका बोझ कभी-कभी विजय प्रताप भी महसूस करते थे। कविता पिता के पास रहने लगी थी। आनंद केतीन भाइयों ने संपत्ति केबंटवारे का ऐसा उत्पात मचाया था कि कविता का वहां रहना नामुमकिन हो गया था। पता नहीं क्यों विजय को एक दिन लगा कि कविता से विवाह कर लेना चाहिए। डायरी में लिखा है, ‘मैं कविता और उसकी बच्ची के बिना शायद नहीं रह सकता। कविता की आंखों में मेरे मन की थाह लेने का भाव है। महिमा, मेरी बच्ची माही...मैं हूं तेरा पापा।’ विजय की जिंदगी में कविता और महिमा शामिल हो गईं। दिन...महीने बीतते हैं और डायरी कहती है, ‘कविता आनंद को भूल नहीं पा रही है। उसकी देह और आत्मा पर आनंद की स्मृतियां हैं। ये रहेंगी। इनकेबीच मुझे भी थोड़ी-सी जगह कविता से चाहिए। पता नहीं कहां से इतना प्यार उमड़ रहा है कविता के लिए। और माही! उसके लिए तो एक गीत लिखना शुरू किया है- मैं अपनी मम्मी की बुलबुल पापा की गौरैया। जिंदगी से यही सब तो मांगा था मैंने।’

मांगना और पाना इतना सरल है! मन में कितना उजाला भरकर विजय ने लिखा होगा, ‘आज कविता के मिलने में एक झिझक थी। कुछ कहना था, बहुत दिन से। शब्द बाद में कहते हैं, पहले शरीर कहता है। अच्छा हुआ कविता ने कह दिया। उसने कहा कि वह अब और कोई संतान नहीं चाहती। मैंने मजाक किया कि देखो तो सही तुम्हारे और मेरे मेल से कैसी सृष्टि होती है। वह रोने लगी कि मैं डरती हूं, कोई और बच्चा होने के बाद तुम महिमा केसाथ अन्याय न करो। मैंने पूरे संकल्प से कहा कि महिमा ही हमारी पहली और अंतिम संतान है।’ कविता एक अंधकार से निकल आई थी। मगर इस अंधकार से उसे मोह भी था। ऋतुएं बदलती थीं, कविता के लिए दिन कटते थे। उसे लगता कि मन का एक हरियाला हिस्सा तेजाब से जला दिया गया है। साल दर साल जिंदगी आगे बढ़ रही थी। महिमा अब हाईस्कूल में थी। विजय का रुतबा दफ्तर में बढ़ रहा था। शहर के साहित्यकार घेरे रहते। किसी को पत्रिका के लिए विज्ञापन चाहिए, किसी को किसी मदद की दरकार है, कोई मुफ्त की शराब पीना चाहता है। वे समझ नहीं पाते कि मुखौटों के पीछे का असली चेहरा क्या है। विजय की कविताएं छपतीं। वाहवाही होती। विजय डायरी में लिखते, ‘एक सज्जन कह रहे थे कि विजय प्रताप इतना बड़ा मूर्ख है कि उसे कोई भी मूर्ख बना सकता है। मुझे ऐसा बताया गया। क्या शराफत, मुहब्बत, मदद या इंसानियत मूर्खता है। कितना अकेला, अपरिचित और अवांछित हो जाता है मेरा मन।’ अकेले होते जा रहे विजय को सबीहा मिली एक संगीत संध्या में। विजय केभीतर एक झरोखा खुला जैसे, ‘रवीन्द्रालय के मंच पर सबीहा। पहले से परिचित हूं। नाक की लौंग चमकती है, जैसे कभी बेगम अख्तर की लौंग कौंधती थी। सबीहा गजल गा रही थीं- बड़ी देर से यही सोचता मैं रुका हूं यादों की धूप में, मेरी रूह खुशबू से भर गई मुझे कौन छू के निकल गया। मैं देर तक इसी धूप और खुशबू में रुका रहा। प्रोग्राम केबाद बधाई देने ग्रीन रूम तक गया।’

परिवार में कविता गुम थी। इतना गुम कि वह हफ्तों विजय को ढूंढ़े न मिलती। मिलती भी तो क्या मिलती, ‘पता नहीं क्या हो गया है जिंदगी का? कविता जैसे मेरा कोई ऋण उतारती है। ऐसा लगता है जैसे हर बार ब्याज की एक किस्त भर दी है। इतनी सेवा करती है कि मैं डर जाता हूं। चाहता हूं कि वह कुछ लिखने-पढ़ने में रुचि ले। स्टूडेंट लाइफ में कविताएं लिखती थी। आज कह रही थी कि कोई भूल चूक हो जाए तो बता देना, मैं सुधार लूंगी। अरे दांपत्य में तो भूल-चूक होती रहनी चाहिए। सुधारना क्या? परिवार है कि किसी छड़ीबाज मास्टर का स्कूल! पता नहीं सही सोचता हूं या गलत। उससे बराबरी का रिश्ता चाहता हूं। दासी...सेविका..धत, लानत है ऐसे शब्दों पर। ऐसे शब्दों पर टिके रिश्तों पर।’ सबीहा से परिचय की निकटता। फिर दोस्ती। विजय सबीहा से वह सब कह पाते जो किसी और से कहना संभव न था। कहना संभव होता भी तो समझना कठिन था। सबीहा मुरादाबाद की रहने वाली थी। वह लखनऊ चली आई थी। माता-पिता अभी भी वहीं रहते थे। विवाह नहीं किया था। कोई चोट ऐसी थी जिसे भूलना आसान न था। गजल गाती थी। खुश रहती है...खुश दिखती थी। महिमा को विजय सबीहा के कार्यक्रमों में ले जाते। महिमा भी खिल उठती उससे मिलकर। वह बड़ी हो रही थी। रिश्तों का अर्थ जानने लगी थी। न भी जानती तो यह अच्छा लगता कि उसके पापा को किसी से मिलकर अच्छा लगता था। यह वो समय था जब विजय के दफ्तर में कुछ दिक्कतें चल रही थीं। विजय कई बार कहते कि नौकरी से मन ऊब रहा था। मन करता है छोड़ दूं। सही ढंग से काम करने का कोई न स्वीकार है न पुरस्कार। कविता कहती कि नौकरी छोड़ दोगे तो करोगे क्या? विजय इस प्रश्न को किसी बेहद निजी मजाक में हलका कर देते। कविता तुनक जाती। महिमा कई बार पापा-मम्मी के तनाव से परेशान हो जाती। वह दोनों से कुछ पूछना चाहती...मगर क्या पूछती। विजय की डायरी बताती है, ‘कविता न दोस्त बन पाई न पत्नी। उसे दोस्ती की बात से घृणा सी है। आज तो हद हो गई। कविता ने कहा कि मैंने सजने-संवरने और रंगरेलियां मनाने के लिए शादी नहीं की। मुझे केवल अपनी बेटी के भविष्य की चिंता थी। तुमने हम दोनों पर दया की। मैं पत्नी का फर्ज निभा रही हूं। इसमें कोई भूल-चूक हो, तो बताओ। मैं तो स्तब्ध रह गया। क्या महिमा आनंद की बेटी है। होगी! अब तो वह मेरी है। क्या मैं उस पर दया करता हूं। दया, करुणा, धन्यवाद के बाहर जो जीवन है उसको कविता समझना नहीं चाहती। उसे सबीहा के साथ मेरे मिलने-जुलने पर आपत्ति है। मैं सबीहा से नहीं मिलूंगा। लेकिन कविता, क्या तुम मुझे कभी समझ सकोगी। समय ने तुम्हारे भीतर जो गहरा असुरक्षा भाव भर दिया है, उसे मेरा प्यार-दुलार बाहर नहीं निकाल पा रहा। यह मेरी पराजय है। मैं कल सबीहा से आखिरी बार मिलूंगा। यह डायरी उसे सौंप दूंगा। कविता को देने से क्या फायदा। माही अभी छोटी है।’

इसके बाद डायरी में कुछ नहीं लिखा है। महिमा एक वक्त में जीवन के कितने सारे आयाम जी रही है। उसे सबीहा की बातें याद आ रही है कि माही, तुम्हारी मम्मी यह समझती रहीं कि विजय ने उनके साथ विवाह करके एक गाय को बूचड़खाने जाने से बचाया है। मानो विजय इससे साबित करना चाहते थे कि देखो मैं हूं हीरो। एक दुखियारी को गले लगाने वाला! माही, तुम्हारी मम्मी कभी बीते कल की काली परछाइयों से उबर नहीं सकीं। उन्हें यह भी लगता रहा कि कहीं कोई दूसरी औरत विजय साहब को उनसे छीन न ले। विजय साहब केवल छत नहीं थे..। वे एक आसमान थे। इंद्रधनुष के तमाम रंगों से भरे हुए। तुम्हारी...माफ करना आप न कहकर तुम कह रही हूं। तुम्हारी मम्मी इन रंगों को कभी पहचान न सकीं। कभी कोशिश भी नहीं की। इसके बाद सबीहा ने मंत्र की तरह पढ़ा था, ‘हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन, खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।’

महिमा को सब याद आ रहा है। एक जीवन में छिपे कई जीवन। यह भी कि हम किसी को जानने की कोशिश नहीं करते। हम अपनी व्याख्याओं से संतुष्ट रहते हैं। महिमा को याद आता है कि विजय प्रताप की आत्महत्या के बाद कई हफ्तों तक अखबार इसकी उधेड़बुन करते रहे थे। एक लोकल चैनल वाला इंटरव्यू लेने आया था। बोला था कि विजय जी के मन में उस घटना के कुछ घंटे पहले क्या चल रहा था। आपको कुछ खबर थी क्या? कविता के बदले महिमा ने जवाब दिया था। जवाब में उठकर उस चैनल वाले केमुंह पर थूक दिया था। दफ्तर केकुछ लोगों ने उड़ाया था कि विजय प्रताप पर कोई जांच बैठने वाली थी...उनकी दोस्त सबीहा उन्हें ब्लैक मेल कर रही थी...कि..। एक मृत्यु की अनंत व्याख्याएं। महिमा की आंख तब खुली जब कविता के घंटी बजाने की आवाज आई। समझ गई कि मम्मी पूजा कर चुकी। वह कविता की आलमारी से चुनरी प्रिंट की साड़ी लेकर उसके पास पहुंची। कविता कुछ कह पाती इससे पहले साड़ी में उसे लपेट सा दिया। कविता ने डांटा कि यह क्या तमाशा है। महिमा उसे लगभग धकियाती सी उस ओर बढ़ी जिधर विजय प्रताप का बड़ा सा फोटो लगा था। कविता फोटो को अपलक देख रही थी। महिमा ने धीरे से कहा, ‘मम्मी, देखो पापा तुम्हें देखकर मुस्करा रहे हैं।’कविता पागलों की तरह महिमा को देख रही थी। महिमा की आंखों में आंसू थे। लेकिन पापा के सामने रोकर वह उन्हें दुखी कैसे करती। महिमा मुस्कराई। फिर अचानक रो पड़ी।

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