शुक्रवार, जुलाई 22, 2011

मेट्रो और मोबाइल


निकलते हैं जब घर से हम

चेहरे पर होती

मुस्कान-हंसी और ठहाके

मीठी-मीठी होतीं हैं

दिल की बातें

मेट्रो के सफर में

रगड़ खाने के बाद

खो जाती हैं कहीं

मुलाकातों की यादे

मोबाइल पर बातों का करना

मेट्रो के एनाउंसमेंट

भीड़ की चिल्लाहट

किसी बच्चे के रोने

की आवाज

तब बदल जाता है

चेहरे का भूगोल,

जुबान की मिठास

हो जाती है गायब

कई बार टूटते हैं

कई बार जुड़ते हैं

हर रोज होता है

यह सिलसिला

बार बार मोबाइल पर

इस सफर में

जुडते और टूटते हैं

यह दिल ।


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