ढकौंदा (पटियाला) से शायदा की ग्राउंड रिपोर्टः वो देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक है। उसकी गिनती खुद से शुरू होती है और वहीं खत्म भी हो जाती है। पूरे गांव में अकेला मुसलमान, करीम बख्श। उम्र 85 पार जाने लगी है। ख्वाहिश यही कि इसी मिट्टी पर दम निकले। 1947 का बंटवारा भी उन्हें इस जमीन से अलग नहीं कर सका। जब गांव के मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया तो 22 साल के करीम अपने ननिहाल भाग गए थे। बाद में लौटे तो सारे घर जले हुए थे। गांव की मस्जिद में गुरुग्रंथ साहिब का प्रकाश किया जा चुका था।
लंबा अरसा बीता पर करीम को अपने गांव से कभी कोई शिकायत नहीं रही। मस्जिद के गुरुद्वारा में बदलने पर वे कहते हैं, ‘वो भी रब का नाम था, ये भी रब का नाम है।’ यहां 15 साल से ग्रंथी जरनैल सिंह कहते हैं, ‘यह जगह पहले भी रब का घर थी, आज भी वही है।’ सिर्फ करीम का दिल ही इतना बड़ा है या गांव वाले भी उन्हें उतना ही अपना मानते हैं? ऐसा शुबहा दिल में घर कर सके इससे पहले ही गांव के एक और बुजुर्ग फकीर सिंह कहते हैं, ‘इससे पूछकर देखो कि क्या हमने इसे खुद से अलग समझा है। इसके बेटे शहर मंे रहते हैं, लेकिन इसने यहां से जाना कबूल नहीं किया।’
करीम बख्श के दिल में पुरानी यादांे का रेला आता है। यह पूछने पर कि क्या कभी उनका ये मन नहीं होता कि इस जगह बैठकर फिर से अजान दे सकें, नमाज पढ़ सकें? करीम का जवाब आता है, ‘अब जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, मैं खुश हूं कि पाकिस्तान नहीं गया। यहीं पैदा हुआ, यहीं मर जाऊंगा। यह कहते हुए बुजुर्ग आंख नम होती है। लेकिन सिर्फ इस अहसास से कि मरने के बाद उन्हें इस गांव से दूर ले जाया जाएगा। जैसे कुछ बरस पहले उनकी पत्नी को बेटे लेकर गए थे। यहां अब कोई कब्रिस्तान नहीं बचा है।
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