मोगा में नानक नगरी के हाजी फजलुद्दीन। उम्र 75 साल। बँटवारे में रिश्तेदारों ने पाकिस्तान का रुख किया, लेकिन अपने पुरखों के गांव भलूर की मिट्टी को छोड़ने से इनके वालिद से साफ इंकार कर दिया। कह दिया कि यहीं पैदा हुए हैं,
यहीं दफन होंगे। मारकाट के उस दौर में स्थानीय सिख परिवारों ने उनकी हिफाजत की। वे अब तक नहीं समझ पाए कि पाकिस्तान बनाने का औचित्य क्या था? उनका कहना है कि यदि आज वे पाकिस्तान में होते तो शायद उनको वो सम्मान नहीं मिलता जो यहां मिला। वे तब 11 साल के थे। १६ अगस्त 1947 का दिन उन्हें अब तक याद है, जब उनके पिता मियां काका खान ने तय किया कि यहीं जीएंगे, यहीं मरेंगे। वे बताते हैं, उस दिन मेरे चाचा इब्राहिम, ताया अलाउद्दीन के साथ तमाम रिश्तेदारों ने मुल्क से जाने का फैसला किया, लेकिन भलूर के कुछ सिखों की पहल पर मेरे पिता ने तय किया कि कहीं नहीं जाएंगे। उनकी ससुराल के गांव कोकरी फूलासिंह से हर साल तीयों के मौके पर बेटियों को दिया जाने वाला सिंधारा (बेटी के मायके की तरफ से ससुराल वालों को त्यौहार आदि पर दिए जाने वाले उपहार) गांव के सरदार चंदासिंह गिल उनकी पत्नी रुस्तम बीबी को देने आते हैं तो लगता है कि जैसे मेरे सभी अपने तो यहीं हैं। उन्हें याद है कि उस वक्त मेरे अब्बू मुझे लेकर फरीदकोट के गांव भान चले गए थे। अगले ही दिन सरदार कृपाल सिंह और बख्शीस सिंह मेरे परिवार को सुरक्षित लिवाने वहां पहुंच गए। इन लोगों ने उनके पिता को भरोसा दिया कि वे खुद उनके परिवार की हिफाजत करेंगे।
क्यों रुक गए हिंदुस्तान में ?
वैसे यह सवाल उनसे पूछा जाना चाहिए, जो गए। न जाकर हमने तो समझदारी दिखाई। शान से रुके, इज्जत से रहे.. क्या किसी ने रोका था? कृपालसिंह और बख्शीशसिंह ने। हमारी हिफाजत की सौगंधें खाईं उन बहादुरों ने..
किसका फैसला था यह? मियां काका खान, मेरे अब्बू। उन्हें अपने दोस्तों पर भारी यकीन था।
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