फैजाबाद जेल में काकोरी रेल डकैती के आरोप में अशफाकउल्लाह खान बंद थे। चश्मदीद गवाहों के अनुसार उन्हें फांसी दिए जाने से चार दिन पहले दो अंग्रेज अफसर उन्हें देखने जेल आए थे। उस समय अशफाक नमाज पढ़ रहे थे। ये देख एक अफसर ने कहा मैं देखना चाहता हूं फांसी के वक्त इस चूहे में कितनी आस्था बचेगी। इसके बाद 19 दिसंबर 1927 का वह दिन आया, जब अशफाक को फांसी दी गई। जंजीरों में जकड़े अशफाक को फांसी के तख्ते पर लाया गया। उनकी जंजीरें खोली गईं। जंजीरें खुलते ही अशफाक ने आगे बढ़कर फांसी के फंदे को चूमा और देश को आखरी संदेश दिया। उन्होंने कहा मेरे हाथ किसी इंसान के खून से नहीं रंगे हैं, मुझ पर लगाए गए इल्जाम झूठे हैं, मुझे यकीन है मेरा खुदा मेरे साथ इंसाफ करेगा। इसके बाद कलमा पढ़ते हुए ये 6 फीट ऊंचा शेर सूली पर चढ़ गया। अशफाकउल्लाह खान बचपन में गांधीजी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए थे। फिर भी आगे चलकर उन्हें लगा कि अहिंसा से देश आजाद नहीं होगा। फिर वे राम प्रसाद बिस्मिल के साथ जुड़ गए। दोनों के धर्म अलग थे, लेकिन मकसद एक था आजादी। इसके लिए उन्हें हथियारों की जरूरत थी। हथियार तैयार करवाने के लिए उन्होंने 9 अगस्त 1925 को डकैती की थी।
डकैती के बाद 26 सितंबर 1925 के दिन रामप्रसाद बिस्मिल सहित सभी पकड़े गए।
सिर्फ अशफाक नहीं पकड़े गए थे। इस बीच वह बिहार में रहे और फिर देश से निकलने की फिराक में दिल्ली आए। यहां एक पठान ने उन्हें धोखा दिया और पकड़वा दिया। पुलिस अधीक्षक तसद्दुक खान ने धार्मिक राजनीति खेलते हुए उन्हें हिंदुओं के खिलाफ बहकाने की कोशिश की। अशफाक ने उनसे कहा- खान साहब मुझे पूरा यकीन है कि एक अंग्रेज भारत से कहीं ज्यादा बेहतर है हिंदू भारत।
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