एक सामान्य आदमी के मन में 24 घंटे में लगभग 60,000 विचार चलते हैं और एक राजनैतिक व व्यापारिक मस्तिष्क में कितने विचार चलते हैं, शायद इसका आंकलन कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं कर सकता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इन सभी विचारों में 95 से 98 फीसदी विचारों की पुनरावृत्ति होती है। पूरे 24 घंटों में सिर्फ 2 से 5 फीसदी नए विचारों का आगमन होता है जो व्यक्तित्व के विकास के लिए पर्याप्त नहीं होता। कोई भौगोलिक राज्य उतना बड़ा नहीं होगा जितना मनोराज्य। इसमें विचार और कल्पनाओं की संख्या इतनी अधिक है जिसको जान पाना कोई सहज कार्य नहीं है। सम्भवतरू इसीलिए व्यक्ति दूसरे से जितना परेशान नहीं होता उससे कहीं अधिक स्वयं के विचारों से होता है।
मेरा आध्यात्मिक अनुभव बतलाता है कि किसी कार्य में रचनात्मकता लाने के लिए मस्तिष्क में समुचित विचारों के आने की आवश्यकता होती है। विचारों का रिपिटिशन मस्तिष्क में जितना अधिक होता है रचनात्मकता उतनी ही कम होती जाती है।यही कारण है कि व्यक्ति के उम्र के बढ़ने के साथ-साथ उसके मस्तिष्क और मन में विचारों का अम्बार खड़ा हो जाता है और साथ-साथ उस पर उसका नियन्त्रण भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। यही कारण है कि उनके मन में विचारों की पुनरावृत्ति आवश्यकता से अधिक होने लगती है जिसको सुधार पाना संभव नहीं हो पाता है और उसे सठियाया हुआ व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है।हमें नहीं मालूम कि ये हजारों असंयमित विचार हमारे मस्तिष्क में अरबों कोशिकाओं को कितनी क्षति पहुंचाते होंगे। बिल्कुल उसी प्रकार जैसे असंयमित ट्रैफिक प्रतिदिन हजारों बेगुनाहों की जान सड़कों पर ले लेते हैं। कुछ लोगों को भ्रम है कि विचारों के बढ़ने पर वाह्य और आन्तरिक जगत में तीव्र विकास होता है किन्तु यह सत्य नहीं है। विचारों के बढ़ने से बुद्घि का नियन्त्रण उस पर कम हो जाता है जिससे अन्तर्विरोध बढ़ता है तथा निर्णय लेने की शक्ति कम हो जाती है। जिसके कारण मस्तिष्क में इतने रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिससे मन में कई रोग पनपने लगते हैं। जैसे एकाग्रता में कमी, तनाव, क्रोध, ईर्ष्या, घृणा इत्यादि विषैले तत्व और साथ ही साथ शारीरिक रोग तो उपहार स्वरूप मिलते ही हैं। जैसे हाई ब्लड प्रेसर, हृदय की धड़कन का बढ़ना, श्वास से सम्बन्धित अनेकों रोग पाचन तथा निष्कासन इत्यादि।विचारों के आने का कारण विचार तभी बढ़ते हैं जब मन की इच्छाएं बढ़ती हैं। इच्छाओं से ही मन की गति बढ़ती-घटती है, अर्थात इच्छाएं ही अनावश्यक विचारों के बढ़ने का मूल कारण हैं। और इच्छाओं की मूल जननी है स्वयं की मर्यादा व आवश्यकता को न समझना। यदि हमारी आवश्यकताएं और इच्छाएं हमारा पड़ोसी निर्धारित करता है तो मन में विचारों के बाढ़ को नियन्त्रित कर पाना सम्भव नहीं।कमजोर मन खोज से डरता है क्योंकि उसमें प्रयत्न करना पड़ता है। इसीलिए वह यांत्रिक बन जाता है उसके यांत्रिक बनते ही एकाग्रता में कमी आने लगती है जिससे हमारे सामने विचारों का अम्बार खड़ा हो जाता है।मस्तिष्क में विचारों की संख्या अनियन्त्रित होने पर मन के अंदर जोखिम उठाने की क्षमता घटने लगती है जिसके कारण उसके रचनात्मक कार्यों में बाधा उत्पन्न होती है।
निवारणः उन्ही विचारों की कई बार पुनरावृत्ति होती है जिसे हम आवश्यकता से अधिक महत्व देते हैं अथवा जिससे हम डरते हैं। विचारों में अपनी कोई मारक क्षमता नहीं होती है बल्कि विचारों को ग्रहण करने वालों में होती है व उसके दृष्टिकोण में होती है। हमारा दृष्टिकोण ही हमारे विचारों को बढ़ाता और घटाता है।कोई भी विचार व कल्पना यदि कर्म में ढालने योग्य नहीं तो वह हमारे लिए कबाड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मिट्टी से ही घड़ा निर्मित हो सकता है बालू से नहीं ऐसी कल्पनाएं बालू के समान ही हैं जिससे अच्छे व्यवहार का निर्माण नहीं होता।विचार और कर्म में सामंजस्य ही अनावश्यक विचारों से निजात दिला सकती है। इसलिए 24 घंटे में कुछ मिनट एकान्त में बैठ कर स्वयं के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न अवश्य करें। इससे स्वयं के दोषों पर नजर जाती है।
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