सोमवार, मार्च 31, 2014

कहीं मोदी को सड़क पर न ला दे अंसारी की तैयारी!

चार अप्रैल को होगा फैसला


नरेंद्र मोदी को वाराणसी में घेरने के लिए बाहुबली मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल ने सेकुलर दलों के सामने एक नया प्रस्ताव रखा है।

दल ने कहा कि सेकुलर दल उनके प्रत्याशी मुख्तार का समर्थन करें।

अगर किसी को मुख्तार की छवि को लेकर एतराज है तो फिर आपसी सहमति से कोई साझा प्रत्याशी खड़ा कर दिया जाए।

कौमी एकता दल अपनी कुर्बानी देकर साझा उम्मीदवार को पूरा समर्थन देगा। प्रस्ताव पर अन्य दलों के रुख का 3 अप्रैल तक इंतजार किया जाएगा।

4 अप्रैल को पार्टी नेताओं की बैठक में मुख्तार के वाराणसी से लड़ने या न लड़ने पर अंतिम फैसला ले लिया जाएगा।

इस प्रस्ताव के संबंध में पार्टी ने सपा, बसपा व कांग्रेस को पत्र भी भेज दिया है।

मोदी के खिलाफ होगी पूरी तैयारी

कौमी एकता दल के अध्यक्ष अफजाल अंसारी ने ‘अमर उजाला’ को बताया कि 27 मार्च को राष्ट्रीय कौंसिल की बैठक में अन्य चुनावी मसलों के अलावा मुख्तार के वाराणसी से चुनाव लड़ने का मुद्दा भी उठा।

कुछ नेताओं की राय थी कि मुख्तार को लड़ना ही चाहिए तो कुछ की राय थी कि इस बार उन्हें केवल घोसी सीट से ही लड़ाया जाए।

दो जगह लड़ने पर ताकत बंटेगी। इन लोगों का यह भी तर्क था कि मोदी के खिलाफ आधी-अधूरी तैयारी से चुनाव नहीं लड़ा जा सकता।

साझा उम्मीदवारी पर भी होगी बात

अफजाल ने बताया कि मुख्तार के वाराणसी में लड़ने को लेकर दल में ही दो राय सामने आने पर तय किया गया कि सभी सेकुलर दलों से बातचीत के बाद फैसला किया जाए।

तय किया गया कि पहले सभी दलों से कहा जाए कि वे मुख्तार को समर्थन दें क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में वे वरिष्ठ भाजपा नेता मुरलीमनोहर जोशी से महज 17 हजार वोट से ही पराजित हुए थे।

अफजाल ने कहा कि पर हम प्रस्ताव को लेकर कोई अड़ियल रुख नहीं अपनाना चाहते थे।

इसलिए साझा उम्मीदवार के रूप में दूसरा विकल्प भी खोल दिया।

. तो मोदी को पैदल करना पड़ सकता है प्रचार

अफजाल का दावा है कि अगर उनके प्रस्ताव पर सेकुलर पार्टियां सहमत हुई तो वाराणसी में मोदी को कड़ी चुनौती दी जा सकती है।

उस स्थिति में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए मोदी को वाराणसी की सड़कों पर उतरना पड़ सकता है।

अफजाल का मानना है कि मोदी और भाजपा की जितनी जमीन है, हवा उससे अधिक बनाई जा रही है।

अगर ऐसा न होता तो मात्र एक विधायक वाले अपना दल को पार्टी नेताओं के विद्रोह के बावजूद दो लोकसभा सीटें न दी जातीं। 

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