मुंबई । शिवसेना को यह डर सताने लगा है कि भाजपा में
नरेंद्र मोदी का बढ़ता प्रभाव एवं भाजपा की ओर अन्य दलों का आकर्षण कहीं
उसकी राजनीतिक जमीन ही न छीन ले। उसकी यह चिंता लोकसभा चुनावों से ज्यादा
अक्टूबर में होनेवाले विधानसभा चुनाव को लेकर है।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद से ही शिवसेना असहज महसूस कर रही है। प्रखर हिंदुत्व की जिस छवि की बदौलत उसने महाराष्ट्र में अपना विस्तार किया, मोदी उस छवि पर उससे ज्यादा खरे उतरते हैं। असुरक्षा की यह भावना शिवसेना में उसके संस्थापक बालासाहब ठाकरे के जीवनकाल में भी रही है। ठाकरे के दबाव का ही परिणाम था कि महाराष्ट्र भाजपा ने मोदी को कभी भी स्टार प्रचारक के रूप में आमंत्रित नहीं किया। शिवसेना का यह व्यवहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कभी पसंद नहीं आया।
इसके बावजूद शिवसेना-भाजपा गठबंधन के शिल्पकार कहे जानेवाले दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन ठाकरे के इस दबाव के आगे न सिर्फ हमेशा झुकते आए, बल्कि ठाकरे की नाराजगी का डर दिखाकर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी झुकाते रहे। महाजन की हत्या के बाद इस नीति को उनके बहनोई एवं महाराष्ट्र भाजपा के शीर्ष नेता गोपीनाथ मुंडे ने आगे बढ़ाया। वहीं, संघ से करीबी रिश्ते रखनेवाले गडकरी शिवसेना के इस रवैये के विरोधी रहे। मुंडे-गडकरी का यही वैचारिक टकराव आज सेना-भाजपा गठबंधन में खटास पैदा कर रहा है।
दूसरी ओर भाजपा पर राज ठाकरे की विशेष मेहरबानी देखते हुए शिवसेना अगले विधानसभा चुनाव को लेकर भी चिंतित है। विशेषकर राज्य की राजनीति में रुचि रखनेवाली शिवसेना को डर है कि राज ठाकरे के इस अहसान के बदले अक्टूबर में होनेवाले विधानसभा चुनाव में भाजपा राज की पार्टी मनसे को भी गठबंधन में शामिल करने का दबाव उसपर बना सकती है। अथवा मोदी लहर में लोकसभा की अधिक सीटें जीतने के बाद जीती नई सीटों के आधार पर विधानसभा चुनाव में उसे पहले से कम सीटों पर लड़ने के लिए मजबूर कर सकती है। जिसके परिणामस्वरूप राज्य में सेना-भाजपा गठबंधन सरकार बनने की स्थिति में भी उसे मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ सकता है।
सेना को ज्यादा महत्व के खिलाफ रहा है संघ
संघ से जुड़ा भाजपा का एक तबका सदैव मानता रहा है कि शिवसेना -भाजपा गठबंधन शुरू होने के बाद से ही महाराष्ट्र भाजपा के कुछ नेता उसे जरूरत से ज्यादा महत्व देते रहे हैं। यही कारण है कि राज्य की राजनीति में तो शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभा ही रही है, लोकसभा चुनाव में भी वह 2009 में भाजपा से दो सीट आगे निकल गई। जबकि 1990 तक चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में शिवसेना प्रत्याशियों का उल्लेख निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में होता था और भाजपा 1957 में ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में 25 सीटों पर राज्य विधानसभा चुनाव लड़कर चार सीटें जीतने में सफल रही थी। भाजपा के एक धड़े का स्पष्ट मानना है कि 1985 में शुरू हुए रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद गठबंधन के बावजूद शिवसेना को उसकी राजनीतिक हैसियत के अनुसार ही सीटें दी गई होतीं तो 1995 की गठबंधन सरकार में महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री भाजपा का बनता और उसे अपने संगठन विस्तार का अधिक मौका मिलता।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद से ही शिवसेना असहज महसूस कर रही है। प्रखर हिंदुत्व की जिस छवि की बदौलत उसने महाराष्ट्र में अपना विस्तार किया, मोदी उस छवि पर उससे ज्यादा खरे उतरते हैं। असुरक्षा की यह भावना शिवसेना में उसके संस्थापक बालासाहब ठाकरे के जीवनकाल में भी रही है। ठाकरे के दबाव का ही परिणाम था कि महाराष्ट्र भाजपा ने मोदी को कभी भी स्टार प्रचारक के रूप में आमंत्रित नहीं किया। शिवसेना का यह व्यवहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कभी पसंद नहीं आया।
इसके बावजूद शिवसेना-भाजपा गठबंधन के शिल्पकार कहे जानेवाले दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन ठाकरे के इस दबाव के आगे न सिर्फ हमेशा झुकते आए, बल्कि ठाकरे की नाराजगी का डर दिखाकर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी झुकाते रहे। महाजन की हत्या के बाद इस नीति को उनके बहनोई एवं महाराष्ट्र भाजपा के शीर्ष नेता गोपीनाथ मुंडे ने आगे बढ़ाया। वहीं, संघ से करीबी रिश्ते रखनेवाले गडकरी शिवसेना के इस रवैये के विरोधी रहे। मुंडे-गडकरी का यही वैचारिक टकराव आज सेना-भाजपा गठबंधन में खटास पैदा कर रहा है।
दूसरी ओर भाजपा पर राज ठाकरे की विशेष मेहरबानी देखते हुए शिवसेना अगले विधानसभा चुनाव को लेकर भी चिंतित है। विशेषकर राज्य की राजनीति में रुचि रखनेवाली शिवसेना को डर है कि राज ठाकरे के इस अहसान के बदले अक्टूबर में होनेवाले विधानसभा चुनाव में भाजपा राज की पार्टी मनसे को भी गठबंधन में शामिल करने का दबाव उसपर बना सकती है। अथवा मोदी लहर में लोकसभा की अधिक सीटें जीतने के बाद जीती नई सीटों के आधार पर विधानसभा चुनाव में उसे पहले से कम सीटों पर लड़ने के लिए मजबूर कर सकती है। जिसके परिणामस्वरूप राज्य में सेना-भाजपा गठबंधन सरकार बनने की स्थिति में भी उसे मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ सकता है।
सेना को ज्यादा महत्व के खिलाफ रहा है संघ
संघ से जुड़ा भाजपा का एक तबका सदैव मानता रहा है कि शिवसेना -भाजपा गठबंधन शुरू होने के बाद से ही महाराष्ट्र भाजपा के कुछ नेता उसे जरूरत से ज्यादा महत्व देते रहे हैं। यही कारण है कि राज्य की राजनीति में तो शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभा ही रही है, लोकसभा चुनाव में भी वह 2009 में भाजपा से दो सीट आगे निकल गई। जबकि 1990 तक चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में शिवसेना प्रत्याशियों का उल्लेख निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में होता था और भाजपा 1957 में ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में 25 सीटों पर राज्य विधानसभा चुनाव लड़कर चार सीटें जीतने में सफल रही थी। भाजपा के एक धड़े का स्पष्ट मानना है कि 1985 में शुरू हुए रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद गठबंधन के बावजूद शिवसेना को उसकी राजनीतिक हैसियत के अनुसार ही सीटें दी गई होतीं तो 1995 की गठबंधन सरकार में महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री भाजपा का बनता और उसे अपने संगठन विस्तार का अधिक मौका मिलता।
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