इतने पैसे मिलने के बारे में पहले कभी सोचा ही नहीं था
सिनथेटिक की सादी हरी साडी पहने 27 साल की ममता कुछ
हिचकिचाते हुए मुझे अपने बारे में बताती है। ममता ने डेढ साल पहले 20,000
रुपए के लिए 'एग डोनेशन' किया था और अब गुडगांव के एक सरोगेसी होम में रह
रही हैं - सरोगेट मां बनने के लिए।
'एग डोनेशन' से मिले पैसे थोडे थे जो बच्चों की रोजमर्रा जरूरतों में खर्च हो गए। बिहार से आई ममता का घर सिर्फ पति की 7000 रुपए की मासिक तनख्वाह से चलता है और सरोगेसी या एग डोनेशन में ममता को कुछ गलत भी नहीं लगता।
वह कहती हैं इससे लेने वाले और देने वाले दोनों का ही भला है। उन्होंने कहा, "अब सरोगेसी की रकम काफी ज्यादा होगी। दो से ढाई लाख रुपए मिलेंगे तो अपनी बेटियों की शादी के लिए जमा कर सकूंगी। एक साथ इतने पैसे मिलने के बारे में पहले कभी सोचा ही नहीं था।"
पिछले कुछ सालों में ममता जैसी महिलाओं की मांग तेजी से बढी है। पर अब ये मांग विदेश से नहीं बल्कि देश के गांव-कस्बों से आ रही है।
गुडगांव में सरोगेसी होम चला रहे बजरंग सिंह बताते हैं कि अक्सर उनके पास गांव के ऐसे किसान आते हैं जो अपनी सारी जमीन जायदाद बेचकर ये इलाज करवाने को तैयार होते हैं।
'एग डोनेशन' से मिले पैसे थोडे थे जो बच्चों की रोजमर्रा जरूरतों में खर्च हो गए। बिहार से आई ममता का घर सिर्फ पति की 7000 रुपए की मासिक तनख्वाह से चलता है और सरोगेसी या एग डोनेशन में ममता को कुछ गलत भी नहीं लगता।
वह कहती हैं इससे लेने वाले और देने वाले दोनों का ही भला है। उन्होंने कहा, "अब सरोगेसी की रकम काफी ज्यादा होगी। दो से ढाई लाख रुपए मिलेंगे तो अपनी बेटियों की शादी के लिए जमा कर सकूंगी। एक साथ इतने पैसे मिलने के बारे में पहले कभी सोचा ही नहीं था।"
पिछले कुछ सालों में ममता जैसी महिलाओं की मांग तेजी से बढी है। पर अब ये मांग विदेश से नहीं बल्कि देश के गांव-कस्बों से आ रही है।
गुडगांव में सरोगेसी होम चला रहे बजरंग सिंह बताते हैं कि अक्सर उनके पास गांव के ऐसे किसान आते हैं जो अपनी सारी जमीन जायदाद बेचकर ये इलाज करवाने को तैयार होते हैं।
गांव में बदली सोच
बजरंग कहते हैं, "10 से 11 लाख रुपए की लागत वाला
यह इलाज सभी एआरटी इलाजों में सबसे महंगा है, पर सब इलाज फेल होने के बाद
भी बच्चा पैदा होने की ख्वाहिश ऐसी होती है कि मध्यमवर्गीय परिवार भी अब इस
इलाज के लिए पैसे जुटाने लगे हैं। फिर इसके बारे में जानकारी भी बढी है।"
बजरंग गुडगांव में सरोगेसी होम चलाते हैं और सरोगेट मां बनने की चाहत रखने वाली महिलाओं को संतानहीन दंपतियों से मिलवाते हैं। उन्हीं के पास करीब डेढ साल पहले आए थे झज्जर के राजेन्द्र सुमन।
45 साल के राजेन्द्र सेना के शिक्षा विभाग की नौकरी छोड चुके हैं और उनकी पत्नी अब भी एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं। बच्चे के लिए जो हो सकता था वो कर के देखा पर संतानहीन रहे।
राजेन्द्र ने कहा, "हमने तो जान-पहचान से बच्चा गोद लेकर भी देखा, पर अनुभव अच्छा नहीं रहा। उसमें वो संस्कार नहीं थे जो हम अपने खून को दे पाते।"
सरोगेसी का रास्ता अपनाने के बाद राजेन्द्र अब जुडवां बच्चियों के बाप हैं। कहते हैं कि अगर सरोगेसी के बारे में पहले पता होता तो पहले करवा लेते, खर्च के बारे में नहीं सोचते।
बजरंग गुडगांव में सरोगेसी होम चलाते हैं और सरोगेट मां बनने की चाहत रखने वाली महिलाओं को संतानहीन दंपतियों से मिलवाते हैं। उन्हीं के पास करीब डेढ साल पहले आए थे झज्जर के राजेन्द्र सुमन।
45 साल के राजेन्द्र सेना के शिक्षा विभाग की नौकरी छोड चुके हैं और उनकी पत्नी अब भी एक सरकारी स्कूल में टीचर हैं। बच्चे के लिए जो हो सकता था वो कर के देखा पर संतानहीन रहे।
राजेन्द्र ने कहा, "हमने तो जान-पहचान से बच्चा गोद लेकर भी देखा, पर अनुभव अच्छा नहीं रहा। उसमें वो संस्कार नहीं थे जो हम अपने खून को दे पाते।"
सरोगेसी का रास्ता अपनाने के बाद राजेन्द्र अब जुडवां बच्चियों के बाप हैं। कहते हैं कि अगर सरोगेसी के बारे में पहले पता होता तो पहले करवा लेते, खर्च के बारे में नहीं सोचते।
संतानहीनता का इलाज
अरविंद पूनिया की भी यही सोच है। रोहतक के सांपल गांव में खेती करने वाले अरविंद खुद को मध्यमवर्गीय बताते हैं।
फोन पर हुई बातचीत में वह मुझे समझाते हैं कि गांव में तो शादी के 2-3 साल बाद तक अगर बच्चा हो तो लोग बातें करने लगते हैं। ऐसे में संतानहीनता का इलाज ढूंढना बहुत जरूरी था।
अरविंद के परिवार वालों ने उनका खूब साथ दिया। वह कहते हैं, "अगर तब यह सोचकर रुक जाते कि पैसे उधार लेने पड रहे हैं, तो एक समय होता कि कम ही सही पर पैसे होते और उनका कोई वारिस नहीं होता।"
अरविंद और राजेन्द्र जैसे लोगों की तादाद अब बढ रही है। गुजरात के आणंद में देश का पहले इनफर्टिलिटी क्लीनिक्स में से एक आकांक्षा इनफर्टिलिटी क्लीनिक चलाने वाली डॉक्टर नैना पटेल भी इस चलन की तस्दीक करती हैं।
पिछले दस सालों में उन्होंने देखा कि सरोगेसी के बारे में मध्यम वर्ग में समझ बढी है पर साथ ही विदेशी दंपतियों का आना कम हुआ है।
फोन पर हुई बातचीत में वह मुझे समझाते हैं कि गांव में तो शादी के 2-3 साल बाद तक अगर बच्चा हो तो लोग बातें करने लगते हैं। ऐसे में संतानहीनता का इलाज ढूंढना बहुत जरूरी था।
अरविंद के परिवार वालों ने उनका खूब साथ दिया। वह कहते हैं, "अगर तब यह सोचकर रुक जाते कि पैसे उधार लेने पड रहे हैं, तो एक समय होता कि कम ही सही पर पैसे होते और उनका कोई वारिस नहीं होता।"
अरविंद और राजेन्द्र जैसे लोगों की तादाद अब बढ रही है। गुजरात के आणंद में देश का पहले इनफर्टिलिटी क्लीनिक्स में से एक आकांक्षा इनफर्टिलिटी क्लीनिक चलाने वाली डॉक्टर नैना पटेल भी इस चलन की तस्दीक करती हैं।
पिछले दस सालों में उन्होंने देखा कि सरोगेसी के बारे में मध्यम वर्ग में समझ बढी है पर साथ ही विदेशी दंपतियों का आना कम हुआ है।
भारत से दूरी
करीब सात साल पहले क्रिस्टल ने डॉक्टर पटेल के जरिए ही सरोगेट मां तलाशी और अब उनके तीन बच्चे हैं। एक बेटी और जुडवां बेटे।
वो अनुभव अच्छे रहे तो क्रिस्टल ने खुद एक सरोगेसी एजेंट का काम शुरू किया। अमरीका में रह कर वो अंतर्राष्ट्रीय दंपतियों का भारत जैसे विकासशील देशों में सरोगेट मांओं से संपर्क करवाती हैं।
उस समय को याद कर क्रिस्टल बताती हैं, "जब मैं भारत आई थी, तब और अब में बहुत बदलाव आ गया है। तब ये सब करना आसान था, अब कायदे बदल गए हैं, मेडिकल वीजा लेना मुश्किल हो गया है, पहले जो एक हफ्ते में मिल जाता था वो अब डेढ महीने में भी कई बार नहीं मिलता।"
लेकिन इस सबके अलावा अंतरराष्ट्रीय मांग को सबसे ज्यादा धक्का उस समय लगा जब भारत सरकार ने गैर-शादीशुदा महिला या पुरुष और समलैंगिक दंपतियों के लिए भारत में सरोगेसी पर रोक लगा दी।
क्रिस्टल के मुताबिक इससे करीब 40 फीसदी मांग घट गई। वो कहती हैं कि गैर-शादीशुदा महिला या पुरुष और समलैंगिक तो थाइलैंड का रुख कर रहे हैं, जहां का सरोगेसी व्यवसाय भारत से भी ज्यादा है।
वो अनुभव अच्छे रहे तो क्रिस्टल ने खुद एक सरोगेसी एजेंट का काम शुरू किया। अमरीका में रह कर वो अंतर्राष्ट्रीय दंपतियों का भारत जैसे विकासशील देशों में सरोगेट मांओं से संपर्क करवाती हैं।
उस समय को याद कर क्रिस्टल बताती हैं, "जब मैं भारत आई थी, तब और अब में बहुत बदलाव आ गया है। तब ये सब करना आसान था, अब कायदे बदल गए हैं, मेडिकल वीजा लेना मुश्किल हो गया है, पहले जो एक हफ्ते में मिल जाता था वो अब डेढ महीने में भी कई बार नहीं मिलता।"
लेकिन इस सबके अलावा अंतरराष्ट्रीय मांग को सबसे ज्यादा धक्का उस समय लगा जब भारत सरकार ने गैर-शादीशुदा महिला या पुरुष और समलैंगिक दंपतियों के लिए भारत में सरोगेसी पर रोक लगा दी।
क्रिस्टल के मुताबिक इससे करीब 40 फीसदी मांग घट गई। वो कहती हैं कि गैर-शादीशुदा महिला या पुरुष और समलैंगिक तो थाइलैंड का रुख कर रहे हैं, जहां का सरोगेसी व्यवसाय भारत से भी ज्यादा है।
सरोगेसी की मांग
इसके अलावा दक्षिण एशिया में नेपाल और दूसरी तरफ मेक्सिको में भी सरोगेसी की मांग बढ रही है।
मांग करने वाले चाहे बदले हों पर सरकारी शोध संस्थान आईसीएमआर भी मानता है कुल मिलाकर सरोगेट मां का व्यवसाय भारत में बढा ही है।
अंडों के दान की ही तरह ये मांग भी ज्यादातर गरीब तबके की महिलाएं ही पूरी कर रही हैं।
यह और बात है कि करीब दस लाख रुपए के इस इलाज में सरोगेट मां को दो से ढाई लाख रुपए तक मिलते हैं।
संतानहीन दंपतियों द्वारा भरी जाने वाली बाकी फीस इलाज, क्लीनिक और एजेंट की सेवाओं के लिए होती है।
मांग करने वाले चाहे बदले हों पर सरकारी शोध संस्थान आईसीएमआर भी मानता है कुल मिलाकर सरोगेट मां का व्यवसाय भारत में बढा ही है।
अंडों के दान की ही तरह ये मांग भी ज्यादातर गरीब तबके की महिलाएं ही पूरी कर रही हैं।
यह और बात है कि करीब दस लाख रुपए के इस इलाज में सरोगेट मां को दो से ढाई लाख रुपए तक मिलते हैं।
संतानहीन दंपतियों द्वारा भरी जाने वाली बाकी फीस इलाज, क्लीनिक और एजेंट की सेवाओं के लिए होती है।
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