जिंदगी
की पूरी परिकल्पना को प्रकृति और पर्यावरण की उपेक्षा खतरे में डाल सकती है। जिस
तरह से आए दिन हम प्राकृतिक संसाधनों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, उसकी कीमत सभी को
चुकानी पड़ रही है। बेहतर है कि हम समय रहते चेत जाएं, और यशासंभव पर्यावरण की
रक्षा करें। इस दिशा में सबसे दुखद पहलू यह है कि लोग तो लोग सरकार की ओर से भी
ठोस पहल नहीं हो रही है, जिसके चलते समस्याएं बढ़ रही हैं। इस बारे में विस्तार से
जानकारी दे रही है दिल्ली विश्वाविद्यालय के रसायन विभाग में कार्यरत और संकल्प
एनवायरमेंटल और सोशल फांउडेशन की प्रमुख.......डॉ0 सीमा उपाध्याय.
कहीं
जीवन न बन जाए एक कहानी
अगर
होती रही प्रकृति से छेड़खानी
ऐसे
करोड़ों रुपये के राजस्व का क्या फायदा, जब
हर वर्ष हमें उससे भी अधिक पैसा पर्यावरण असंतुलन से होने वाली तबाही के बाद
पुनर्वास पर खर्च करना पड़े।
पृथ्वी
को हम भारतवासी धरती माँ के नाम से भी पुकारते हैं। जिस तरह से गर्भावस्था के समय
माँ के शरीर पर होने वाली विकृतियों से गर्भ में उसके बच्चे के आस्तित्व को खतरा
पैदा हो जाता है। उसी प्रकार से धरती माँ के आंचल में रहने वाले हम सभी जीवों के
आस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। क्योंकि अपने फायदे के लिए हम मानवों ने धरती
पर आसीन पर्वतों और जंगलों के साथ भयानक छेड़-छाड़ कर ऐसी प्राकृतिक विकृतियों को
जन्म दिया है, जिसके परिणाम स्वरूप प्राकृतिक अपदाओं का कहर हम पर टूटने लगा
है। भारत, चीन, अमेरिका
कुल मिलाकर दुनियां की आधी आबादी आपदा क्षेत्र के मुहाने पर है। उत्तराखंड के बाद चीन में आई
प्रलयकारी बाढ़ ने आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच जारी विवाद को एक बार
फिर लोगों के बीच बहस का एक बड़ा मुद्दा बना दिया है। जहां भारत, चीन, मैक्सिको और ब्राजील की आधी जीडीपी आपदा के लिहाज से संवेदनशील
इलाकों से आती है एवं 21
प्रतिशत मानवीय मदद का इस्तेमाल आपदा से लडऩे और उससे निपटने के उपाय में करना
पड़ता है। बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाये इन देशों के विकास पर सबसे ज्यादा
चोट करती हैं। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही भयानक परिणाम है जो आज दुनियां भरके
ग्लेशियर पिघलने लगे हैं। फिर चाहे वो स्विट्जरलैंड का रोन ग्लेशियर हो या हमारा
हिमालय। लेकिन विश्व सभी ग्लेशियरों में
आज हिमालय के ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग से सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं। ग्लेशियर
पिघलने के कारण झीलों का निर्माण हो रहा है। बरसात के दौरान यह झीलें सक्रिय हो
जाती है। ग्लेशियरों में होने वाले हिमस्खलन के दौरान यदि झीलें विशाल रूप ले लें
तो इनके टूटने से ग्लेशियर से जुड़ी नदियों में अचानक पानी की मात्रा बढ़ जाती है।
जिस कारण इन आबादी क्षेत्रों से गुजरती हुयी नदियां भारी तबाही मचाती हैं। इस
प्रकार की झीलें चीन में तबाही मचा चुकी हैं। हमारे यहां सिक्किम में ग्लेशियरों
में बनी इस तरह की झीलें लगातार सक्रिय हो रही हैं। जो की भारी चिंता का विषय है। इसके
अलावा उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और चमौली के ग्लेशियरों में एक दर्जन से अधिक छोटी-छोटी
झीलें बन चुकी हैं। जिसमे की सबसे अधिक अधिक झीलें रुद्रप्रयाग जिले में हैं। इसी
लिए यह क्षेत्र भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील हैं। आज के हिसाब से देखें तो 34 सालों में रुद्रप्रयाग जिले में 8 बार मानसून आपदायें आ चुकी हैं। इसके
साथ ही 1951 से 2004 के बीच हर
दशक वर्षा में 14.5 प्रतिशत की वृद्धि
दर्ज की गयी। साल दर साल उत्तर भारत में आने वाली बाढ़ का रूप विकराल होता जा रहा
है। जिसका
सीधा संबंध हिमालय के जंगलों में पर्यावरण के साथ हो रही व्यापक मानवीय छेड़छाड़
से जुड़ा है। हिमालय के दक्षिणी ढलान के क्षेत्र से बाढ़ का पानी नीचे की ओर आता
है। उस क्षेत्र में व्यापक तब्दीली की गई है, यहां पर जहां ‘बाज
हिमालयी लकड़ी’ के पेड़ थे, उनको चीड़ के पेड़ों से विस्थापित किया
गया है। चूंकि चीड़ की लकड़ी और राल दोनों की बिक्री से करोड़ों रुपयों का राजस्व सरकार
को प्राप्त होता है। लेकिन बांज के जंगल जो हिमालय के दक्षिणी ढलान पर प्रकृति के
आर्थिक चक्र के केन्द्र हैं, इनके
कारण नीचे झाडिय़ों, लताओं और घास का
प्रचुर सांचा अस्तित्व में आता है। जिसमें अधिकांश वर्षा का जल समा सकता है।
परन्तु वन विभाग ने बांज के जंगल लगाना तो दूर, चीड़ के जंगलों में भी भारी कटाई शुरु कर दी। सन् 1950 और 1970 के बीच पहाड़ के जंगलों से मैदानी कारखानों में पहुंचने वाली
चीड़ की सप्लाई 87 हजार से बढ़ कर दो
लाख घनमीटर तक पहुंच गई। उसी दौरान सन् 1970
में अलकनंदा घाटी में भयानक बाढ़ आई उससे लगभग 100 वर्ग किलोमीटर जमीन पानी में
डूब गई, कई पुल और सडक़ें नष्ट
हो गई, जनमानस की और फसलों
की भारी बर्बादी हुई। जिसका नतीजा चिपकों आंदोलन शुरु हुआ। इस आंदोलन की वजह से
सरकार ने 1000 मीटर से ज्यादा
ऊंचाई पर पेड़ काटने पर पाबंदी तो लगा दी लेकिन अर्द्ध-व्यावसायिक हो चुका वन-विभाग
इस ओर से अपनी आंखें मूंद चुका है। जिसके फलस्वरूप अब वहां वनों की कटाई नही बल्कि
वनों का स्वरुप बदलने का मामला प्रकाश में आ रहा है। इसके अलावा पर्यटन को बढ़ावा
देने की होड़, जनसंख्या बढऩे,
हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर परियोजनाओं,
जिसके अन्तर्गत उत्तराखंड में 220
के आस-पास विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं। जिसमें 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना निर्माणाधीन एनटीपीसी की
विद्युत परियोजना बेराज स्थल हेलंग, 444
मेगावाट की निर्माणाधीन टीएचडीसी की पीपल कोटी,विष्णुगाड़ परियोजना, 330 मेगावाट की श्रीनगर परियोजना मुख्य हैं।
इसके अलावा 600 परियोजनाएं और प्रस्तावित
हैं। टिहरी जैसे विशाल संयंत्र भी इसी का हिस्सा हैं। इन सब परियोजनाओं के लिये
बड़े पैमाने पर धरती के भीतर सुरंगे बनती है। जिसके लिये पृथ्वी के गर्भ में बड़े-बड़े
विस्फोट करने पड़ते हैं। पहाड़ों में सडक़ो
का जाल बिछाया जा रहा है। हांलाकि सडक़ें बनाना गलत बात नहीं है, लेकिन इस काम के लिये डायनामाइट से धरती
की छाती को चीरना प्रकृति के साथ घोर अन्याय है। पूरे हिमालय पर्वत में इस तरह की
गतिविधियां दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। नदियों के किनारे रिसॉर्ट बनांए जा रहे
हैं। लकड़ी और पत्थरों की इमारतों को तोड़ कर उन्हें कंक्रीट-सीमेंट से बना दिया
गया। इसकी
वजह से रात के समय अधिक गर्मी होने लगी और धीरे-धीरे यह इलाका अत्याधिक गर्म होता
जा रहा है। पर्यटन को बढ़ावा देने से इस क्षेत्र में होटल व्यवसाय चरम पर पहुंचा
है। खूबसूरती के लिए कई
होटल तो नदी का रास्ता काट कर बनाये गये हैं। लेकिन नदियों के तटों के साथ
छेड़छाड़ करने से पहले इन नदियों का इतिहास जानना बहुत जरुरी था। यही वजह है कि
होटल और रिसॉर्ट यहां आने वाले पर्यटकों के लिये मौत की सौगात बन रहे हैं। पहाड़ों के बीच में
सडक़ और बांध बनाने के कारण आज यहां काफी भूस्खलन होने लगे हैं। वहीं दूसरी ओर निमार्ण
कार्यो से निकले मलबे को नदी तल में बहाया गया। जिससे के परिणाम स्वरूप ज्यादा
बाढ़ आने लगी हैं। इन्हीं सब गंभीर बातों की वजह से दुनियां भर की पहाड़ी
श्रंखलाओं की तुलना में हिमालय तेजी से गर्म हो रहा है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर
इंटिग्रेटेड मांउटेन डेवलपमेंट की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 100 सालों में जहां एक ओर वैश्विक तापमान में 0.74 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। वहीं तिब्बती पठार का
तापमान 2100 तक करीब 5 डिग्री सेल्सियस बढऩे की उम्मीद की जा
रही है। लोगों को समझना होगा कि हिमालय को मुम्बई और दिल्ली नहीं बनाया जा सकता।
वरना प्रकृति के तांडव से विनाश निश्चित है। आज देश के हर नागरिक का नैतिक दायित्व
है कि वह सरकार पर दबाव बनाए कि सरकार कड़ाई से पर्यावरण संरक्षण के नियमों का
अनुपालन सुनिश्चित करें। हम सभी को को उद्योग जगत पर भी दबाब बनाना होगा कि वे
औद्योगीकरण के नाम पर पर्यावरण को हानि पहुंचाना बन्द करें। साथ ही जनप्रतिनिधों
को यह सोचना होगा की ऐसे करोड़ों रुपये के राजस्व का क्या फायदा, जब हर वर्ष हमें उससे भी अधिक पैसा पर्यावरण
असंतुलन से होने वाली तबाही के बाद पुनर्वास पर खर्च करना पड़े। भूस्खलन और दरारों
का उपग्रह द्वारा लगातार निरीक्षण करना होगा। जिन ढलानों से जंगल उजड़ चुके हैं,
उन पर बांज के पेड़ लगाना बहुत जरुरी
है। बाढ़ रोकने के लिये छोटे बांध व तटबंध बनाना और ग्राम पंचायतों के जरिये ग्रामीणों
को ऐसी आपदा से निपटने का प्रशिक्षण देना भी जरुरी है। इसके अलावा राजनेताओं को
हिमालय के दूसरे क्षेत्रों में भी खतरे की
चेतावनी को सुनना जरुरी है। अरुणांचल प्रदेश में भी सामाजिक और प्राकृतिक प्रभावों
का ध्यान रखे बिना कई बड़े बांध बनाने को मंजूरी दे दी गई है। जबकि यह भी ऐसा
क्षेत्र है जहां बारिश होती है और यहां तेज पहाड़ी नदियां है। सरकार को इन सभी
पहलुओं पर अतिशीघ्र गौर कर के मानवता की भलाई के लिए बड़े, कड़े और प्रभावी कानून
बनाने की आवश्यकता है। अगर बांध निर्माण और खनन
पर रोक नहीं लगाई गई तो हालात दिन पर दिन और भयानक होते जायेंगे।
डा.
सीमा उपाध्याय
दिल्ली
विश्वविद्यालय
रसायन
विभाग
प्रमुख-
संकल्प इन्वॉयरमेंटल
एंड
सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन
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