
पांच अक्टूबर को दोबारा केदारधाम के कपाट खुलने पर उन आंखों में उम्मीद की लौ टिमटिमाने लगी, जिनके अपने 17 जून की तबाही के बाद लौटकर नहीं आए। आस थी कि दोबारा केदारधाम जाने पर उनके अपने कहीं न कहीं जरूर मिल जाएंगे। इसलिए यात्रा शुरू होने की सूचना पाते ही दौड़े चले आए। तबाही के बाद से ही केदारघाटी के गांवों में लोगों का दुख-दर्द बांट रहे सामाजिक चिंतक वेदिका वेद बता रहे हैं कि कईयों ने तीन-चार दिन पहले से ही गुप्तकाशी में डेरा डाल दिया। इस उम्मीद में कि प्रशासन से यात्रा की अनुमति मिलते निकले पड़ेंगे उन पगडंडियों पर, जिनसे गुजरते हुए उनके अपने फिर लौटकर नहीं आए।
वेद कहते हैं कि सरकार ने यात्रा तो शुरू कर दी, लेकिन उन दुश्वारियों की परवाह नहीं की, जिन्हें यात्रियों को झेलना पड़ा। केदारधाम जाने और वहां से वापस लौटने के लिए सिर्फ दो दिन का वक्त दिया गया। जबकि, थकाकर चूर कर देने वाली 24 किलोमीटर की पैदल दूरी नापकर दूसरे दिन इसी राह वापस लौटना शहरी जीवन के आदी हो चुके इन यात्रियों के बूते में नहीं। इससे भी अफसोसजनक बात यह कि उन्हें चौपर से केदारनाथ जाने की अनुमति नहीं दी गई, जबकि वे अपने खर्चे पर हवाई सेवा मांग रहे थे। वह बता रहे हैं कि उम्मीद लेकर बिछुड़ों के परिजन रोजाना गुप्तकाशी पहुंच रहे हैं, काश! हमारे माता-पिता मोहन जिंदल व मीना जिंदल तबाही के बाद से मिसिंग हैं। अब सारा मंजर अपनी आंखों से देख लिया। लगता नहीं कि हम दोबारा उनसे मिल पाएंगे।
मनीष जिंदल व मुकेश जिंदल, पश्चिम बंगाल को उम्मीद थी कि इस यात्रा में पत्नी संगीता, आठ साल की बेटी अनिष्का व चार साल के बेटे रुद्रांश से मिलन हो जाएगा। [आंसू पोंछते हुए] लेकिन, मैं इतना खुशकिस्मत नहीं।
आशुतोष सिंह, उन्नाव [उप्र], तबाही में मेरे दोनों बच्चे बिछुड़ गए। केंद्रीय विद्यालय हैदराबाद में पढ़ते थे। तीन दिन से विनती कर रहा हूं कि मुझे चौपर से जाने दो, किराया दूंगा, लेकिन कोई सुनता ही नहीं [इतना कहकर रोने लगते हैं]।
गोपाल कृष्ण हैदराबाद [आंध्र प्रदेश], यकीन ही नहीं हो रहा कि नर्मदा अब नहीं है। बच्चे मां को पूछते हैं, उन्हें कैसे समझाऊं। सोचा था कुछ तो जानकारी मिलेगी [रोते हुए], लेकिन मेरी बदकिस्मती.। गोपीचंद चौधरी, ग्राम केकड़ी, जिला अजमेर [राजस्थान]।
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