शनिवार, सितंबर 14, 2013

मुस्लिम ही नहीं हिंदुओं का भी उठा भरोसा



मुस्लिम ही नहीं हिंदुओं का भी उठा भरोसा
मुजफ्फरनगर, ।मुजफ्फरनगर में हुए दंगे ने हिंदू और मुसलमान, दोनों ही समुदायों को जख्म दिए हैं। जहां तमाम मुसलमान परिवार घर-बार छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं, वहीं पर तमाम हिंदू भी उन गांवों को छोड़ गए हैं जहां उन्हें खतरा महसूस हो रहा था। सात सितंबर को महापंचायत से लौट रहे लोगों पर जौली नहर की पटरी पर हुए हिंसा के तांडव के बाद से आसपास के गांव में रहने वाले हिंदू भी पलायन कर गए हैं। परिवार में इक्का-दुक्का लोग रह गए हैं। यहां से महिलाओं और बच्चों का पलायन जारी है। लोग सात सितंबर की घटना से अभी भी भयभीत हैं।

जौली, तेवड़ा, रुड़कली, नया गांव, तिसवा और पटौली में हिंदुओं की तादाद कम है। हर गांव में पांच सौ से लेकर सात सौ की संख्या में लोग हैं। सात सितंबर को महापंचायत के बाद हुए तांडव से हिंदुओं के मन में जान का भय बन गया। लोग महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर भेज रहे हैं। परिवारों के केवल दो-तीन पुरुष ही यहां पर रहकर घरों की रखवाली कर रहे हैं। दिन में वे घरों से बाहर नहीं निकलते हैं। सुरक्षा के नाम पर यहां कोई इंतजाम नहीं हैं। पुलिस की गाड़ी आती है और बिना रुके ही निकल जाती हैं। अभी तक यहां से लगभग दो हजार महिलाएं और बच्चे पलायन कर रिश्तेदारों के घर पर शरण ले रहे हैं। स्थानीय लोगों का आरोप है कि इन गांवों में पुलिस ने अभी तक तलाशी अभियान नहीं चलाया है। साथ ही दिन में कुछ संदिग्ध लोगों की आवाजाही भी देखी जा रही है।
मुहब्बत पर भारी नफरत की आंधी
शामली। 'चराग शहरे वफा के बुझा दिए किसने। ये इख्तलाफ के शोले सजा दिए किसने' ये शेर आज के हालात पर एकदम सटीक बैठ रहा है। गांव की चौपाल पर चौधरी साहब और हाजी जी साथ हुक्का गुड़गुड़ाते थे। लोग दोपहर में ताश की गड्डी के पत्ते फेंटकर मनोरंजन करते थे। हंसी ठिठोली भी खूब हुआ करती थी। बीते सप्ताह इस सब पर सियासी नजर लगी और तब से चौपालें सूनी पड़ी हैं।
हालांकि खाप चौधरियों और जिम्मेदार लोगों ने भाईचारा कायम करने की कोशिश शुरू की है, लेकिन शामली जिले के दहशतजदा दंगा पीड़ित महिचओं, बच्चों व पुरुषों ने वापस लौटने से साफ इन्कार कर दिया है। शामली के दिल्ली रोड स्थित मदरसे में शरणार्थी शिविर लगा है। इसमें गांवों से पलायन हुए कई लोगों की आंखों के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। सभी की जुबां पर एक सवाल है कि उनकी क्या गलती थी। शिविर में रह रहे गांव लांक के शफीक, इलियास ने बताया कि दंगाइयों ने घरों में आग लगा दी। जान से मारने को दौड़ पड़े। बामुश्किल भागकर जान बची है। अविश्वास जताते हुए कहा कि अब दोबारा कभी वापस नहीं जाएंगे। भौरा खुर्द के शौकत, महबूब, शहीद, शाकिर, कुड़ाना की शकूरा, शकील, ने रूंधे गले से कहा कि उनके गांव के हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की तरह रहते थे। एक दूसरे पर जान छिड़कते थे, लेकिन पता नहीं किसकी नजर लगी कि सब एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। बोले, मुहब्बत, भाईचारा और घर, सबकुछ तो जल गया। अब गांव में नफरत के सिवा कुछ नहीं बचा है।

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