शनिवार, दिसंबर 18, 2010

अहिंसा का संदेश देता है मुहर्रम

गीता में लिखा है: हे भरतवंशी ! जब भी और जहां भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब - तब मैं अवतार लेता हूं। गीता में अर्जुन से यह बात भगवान कृष्ण ने अपने बारे में कही है। लेकिन पूरे विश्व में जब भी इस प्रकार की कोई घटना घटित होती है , तब कोई न कोई आगे आता है। हर धर्म में इस प्रकार की अनेकानेक घटनाओं का उल्लेख मिलता है , जहां धर्म की रक्षा के लिए लोगों ने अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए अथवा शहीद हो गए।

इस्लाम के शुरुआती दौर में भी कुछ ऐसा ही हुआ। हिजरी सन् 60 में यजीद ख़लीफा बन बैठा और उसके अत्याचार बढ़ने लगे। अपने गलत कार्यों के लिए यजीद ने हजरत इमाम हुसैन से भी समर्थन मांगा , लेकिन उन्होंने उसके गलत कामों पर अपनी मोहर लगाने से मना कर दिया। यजीद के अत्याचारों का समर्थन न करने पर उसने हजरत इमाम हुसैन के कत्ल का हुक्म दे दिया।

हजरत इमाम हुसैन आततायी यजीद के अत्याचारों से बचने के लिए मदीना से कूफा के लिए चल पड़े। लेकिन रास्ते में कर्बला के मैदान में यजीद के इशारे पर हजरत इमाम हुसैन सहित 72 लोगों को शहीद कर दिया गया। मुहर्रम या यौमे - आशूरा हजरत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद को ताजा करने तथा उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का दिन है।

जिस प्रकार हम हर साल 30 जनवरी को गांधी जी का शहीदी दिवस मनाते हैं , उसी प्रकार हजरत इमाम हुसैन का शहीदी दिवस पूरी दुनिया में फैले इस्लाम धर्म के अनुयायी मातम के रूप में मनाते हैैं। उनकी याद में ताजियों का जुलूस निकाला जाता है। क्योंकि हजरत इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ धर्म की रक्षा अथवा आतंक और अन्याय का विरोध करने के लिए शहीद हुए थे , इसलिए मुहर्रम हमें अहिंसा का पैगाम देता है। अत रू इस दिन अथवा इस की आड़ में किसी भी प्रकार की हिंसा मुहर्रम की भावना के सर्वथा विपरीत है। इसे एक अहिंसा पर्व के रूप में मनाना ही समीचीन जान पड़ता है।

मुहर्रम या यौमे - आशूरा हमेशा पहले अरबी महीने मुहर्रम की दसवीं तारीख को पड़ता है। जिस प्रकार ईसाइयों के पर्व क्रिसमस इत्यादि अंग्रेजी महीनों और तिथियों ( ईस्वी संवत्सर अर्थात् ग्रिगोरियन कैलंडर ) के अनुसार तथा हिंदुओं के पर्व भारतीय महीनों और तिथियों ( विक्रम संवत्सर) के अनुसार मनाए जाते हैं , उसी तरह सभी इस्लामी पर्व अरबी या इस्लामी महीनों ( हिजरी संवत ) के अनुसार ही मनाए जाते हैं। इस्लामी या हिजरी संवत्सर हजरत मुहम्मद साहिब ( सल्ल 0) की हिज्रत से शुरू होता है। वैसे तो अरबी महीनों की संख्या भी बारह ही है , लेकिन क्योंकि अरबी महीने चंद्रमास पर आधारित हैं , इसलिए इसका एक महीना लगभग साढ़े उनतीस दिन का तथा साल 354 दिन का हो जाता है। इससे वह ईस्वी संवत्सर से कम दिनों वाला साल बन जाता है। यही वजह है कि अंग्रेजी तारीख के अनुसार अरबी साल हर पिछले साल के मुकाबले ग्यारह दिन पहले ही शुरू हो जाता है। इस्लाम के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहिब ( सल्ल 0) का यौमे - पैदाइश अर्थात् जन्म दिन ईदे - मीलादुन्नबी चाहे जिस अंग्रेजी महीने या तारीख को पड़े, लेकिन अरबी महीनों के अनुसार यह हमेशा रबी उल - अव्वल माह की बारहवीं तारीख को ही मनाया जाता है। इसी प्रकार ईदुलफित्र चाहे जिस अंग्रेजी महीने या तारीख को पड़े , लेकिन अरबी महीनों के अनुसार यह शव्वाल माह की पहली तारीख को ही मनाई जाती है। शव्वाल से पहले महीने रमजान में पूरे महीने रोजे रखे जाते हैं। रमजान की समाप्ति पर शव्वाल माह में जब भी चांद दिखाई देता है उससे अगले दिन शव्वाल की पहली तारीख पड़ती है और वही दिन निश्चित रहता है प्रतिवर्ष ईदुलफित्र मनाने का।

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