दोनों हाथों से विकलांग हलीमा जिंदगी का ककहरा पांव से ही लिख रही है। जब वह एक पैर से कापी व दूसरे पैर की अंगुलियों से कलम पकड़कर लिखती है तो लोग देखते ही रह जाते हैं। कुशाग्र इतनी कि एक बार जो पढ़ा दिया, उसे वह कभी भूलती नहीं। चिरैया प्रखंड के सगरदिना गांव के मौलवी इरशाद आलम की आठ वर्षीया पुत्री हलीमा शादिया की हसरत पांव से लिखकर ही अपने पैर पर खड़ा होने की है। विरासत में मिली विकलांगता हलीमा के हौसले के आगे पस्त हो गई है। मदरसा शिक्षक मौलवी इरशाद आलम जन्मजात विकलांग हैं। हालांकि उनकी बेगम पूरी तरह स्वस्थ हैं, लेकिन इसके बावजूद उनकी तीनों संतान जन्मजात विकलांगता के शिकार है। मौलवी की माली हालत भी अच्छी नहीं है फिर भी हलीमा की पढ़ाई में वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। हलीमा कहती है कि वह पढ़-लिखकर शिक्षक बनेगी और परिवार की गरीबी दूर कर अपने भाई-बहन ही नहीं देश के विकलांगों के लिए रोल माडल बनेगी। वह गांव के ही स्कूल में कक्षा तीन की छात्रा है। हमेशा मुस्कुराते रहने वाली हलीमा का अधिकतर समय पढ़ने-लिखने में ही बीतता है।
मौलवी इरशाद आर्थिक तंगी के कारण अपने तीन साल के विकलांग पुत्र मो. असलम और सात माह की मासूम हनीफा शादिया को चिकित्सा सुविधा नहीं दिला पा रहे हैं। मदरसा शिक्षक के रूप में मिलने वाले महज दो हजार रुपये की मासिक आमदनी से ही वह किसी तरह परिवार की गाड़ी खींच पा रहे है। उन्हें सरकारी सहायता के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता। स्थानीय प्रशासन से अपनी पारिवारिक विकलांगता का हवाला देकर फरियाद लगा चुके हैं। यही नहीं दिल्ली के जंतर-मंतर पर भी धरना दे चुके हैं, लेकिन उनकी मदद को आज तक कोई आगे नहीं आया।
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