इस चमक के पीछे कितनी कालिख?
मुरादाबाद का जिक्र छिड़ते ही पीतल की चमक जेहन में
कौंधती है, लेकिन इस चमक के पीछे कितनी कालिख है, यह वही जान सकता है
जिसने यहां के आखिरी छोर तक जाने की कोशिश की हो।
अब भी तमाम गांव ऐसे हैं, जहां बिजली नहीं पहुंची, बरसात आते ही हजारों लोगों की रातें बाढ़ की चिंता में कटती हैं। कई गांव ऐसे हैं जहां आज तक सड़क नहीं बनी।
वाकई यह तस्वीर हैरत में डालती है। पूर्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन चुनाव लड़े तो उम्मीदें आसमान पर पहुंच गईं, लेकिन वह भी कुछ नहीं कर सके।
हर चुनाव में मुरादाबाद सवाल पूछता है कि हम वोट दें तो क्यों? मुद्दों पर बात होती है, वादे-दावे मंच से गूंजते हैं लेकिन चुनाव बीतते ही यहां के लोग फिर यही सोचते हुए लकीर पीटते हैं... अगले चुनाव में सबक सिखाएंगे।
अब भी तमाम गांव ऐसे हैं, जहां बिजली नहीं पहुंची, बरसात आते ही हजारों लोगों की रातें बाढ़ की चिंता में कटती हैं। कई गांव ऐसे हैं जहां आज तक सड़क नहीं बनी।
वाकई यह तस्वीर हैरत में डालती है। पूर्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन चुनाव लड़े तो उम्मीदें आसमान पर पहुंच गईं, लेकिन वह भी कुछ नहीं कर सके।
हर चुनाव में मुरादाबाद सवाल पूछता है कि हम वोट दें तो क्यों? मुद्दों पर बात होती है, वादे-दावे मंच से गूंजते हैं लेकिन चुनाव बीतते ही यहां के लोग फिर यही सोचते हुए लकीर पीटते हैं... अगले चुनाव में सबक सिखाएंगे।
चिथड़े लिबास में बच्चों की फौज
देश की राजधानी से महज 160 किलोमीटर दूर है
मुरादाबाद, लेकिन विकास से इसकी दूरी हजारों मील है। ठाकुरद्वारा से निकलकर
जब हम मूलावान गांव की ओर बढ़ते हैं तो चिथड़ों में लिपटे बच्चों की फौज
दिखती है।
इनके लिए शायद किसी ने कुछ नहीं सोचा... बच्चों से जुड़ीं केंद्र सरकार की तमाम योजनाएं यहां कहीं नजर नहीं आतीं। धुंधलका हो रहा है लेकिन गांव में बिजली नहीं दिखी।
पूछने पर एक किसान ने इशारा किया... जब पोल ही नहीं हैं तो बिजली कहां से आएगी। ग्राम प्रधान नाजमा खातून कहती हैं, हमने कई बार धरना-प्रदर्शन किया। सभी नेताओं के चक्कर लगाए... लिख-लिखकर थक गई, लेकिन गांव को बिजली नहीं दिला पाई।
यही नहीं चंदूपुर गुलड़िया, मानावाला टांडा समेत दर्जनों गांवों में बिजली नहीं है। यहां अब भी बच्चे लालटेन की रोशनी में परीक्षा की तैयारी करते हैं और बैटरी वाले टीवी पर क्रिकेट देखते हैं।
इनके लिए शायद किसी ने कुछ नहीं सोचा... बच्चों से जुड़ीं केंद्र सरकार की तमाम योजनाएं यहां कहीं नजर नहीं आतीं। धुंधलका हो रहा है लेकिन गांव में बिजली नहीं दिखी।
पूछने पर एक किसान ने इशारा किया... जब पोल ही नहीं हैं तो बिजली कहां से आएगी। ग्राम प्रधान नाजमा खातून कहती हैं, हमने कई बार धरना-प्रदर्शन किया। सभी नेताओं के चक्कर लगाए... लिख-लिखकर थक गई, लेकिन गांव को बिजली नहीं दिला पाई।
यही नहीं चंदूपुर गुलड़िया, मानावाला टांडा समेत दर्जनों गांवों में बिजली नहीं है। यहां अब भी बच्चे लालटेन की रोशनी में परीक्षा की तैयारी करते हैं और बैटरी वाले टीवी पर क्रिकेट देखते हैं।
दिल की बीमारी दिल्ली दौड़ती है
ऐसा नहीं कि मंडल मुख्यालय की हालत बहुत अच्छी है।
120 करोड़ रुपये से अधिक आयकर देने वाले इस जिले में एक सरकारी
विश्वविद्यालय तक नहीं है।
आज भी यहां के छात्रों को यूजीसी-नेट देने दूसरे शहर में जाना पड़ता है। महिला अस्पताल एक है जहां हमेशा मारामारी रहती है, दिल की बीमारी यहां अब भी दिल्ली की ओर दौड़ाती है।
हाईकोर्ट बेंच के लिए यहां के अधिवक्ता जद्दोजहद कर रहे हैं और जाम के बारे में तो कुछ कहिए ही मत। जिधर निकलिए, फंसने का डर।
इन दुश्वारियों के बीच भी जिले ने तरक्की की ओर कदम बढ़ाए, मल्टीप्लेक्स बना, दो निजी विश्वविद्यालय खुले, जामा मस्जिद क्षेत्र में रामगंगा पर पुल भी बना लेकिन 10 सालों में 25 फीसदी बढ़ी आबादी के लिए यह नाकाफी है।
आज भी यहां के छात्रों को यूजीसी-नेट देने दूसरे शहर में जाना पड़ता है। महिला अस्पताल एक है जहां हमेशा मारामारी रहती है, दिल की बीमारी यहां अब भी दिल्ली की ओर दौड़ाती है।
हाईकोर्ट बेंच के लिए यहां के अधिवक्ता जद्दोजहद कर रहे हैं और जाम के बारे में तो कुछ कहिए ही मत। जिधर निकलिए, फंसने का डर।
इन दुश्वारियों के बीच भी जिले ने तरक्की की ओर कदम बढ़ाए, मल्टीप्लेक्स बना, दो निजी विश्वविद्यालय खुले, जामा मस्जिद क्षेत्र में रामगंगा पर पुल भी बना लेकिन 10 सालों में 25 फीसदी बढ़ी आबादी के लिए यह नाकाफी है।
चुनाव आते-जाते हैं, पर नहीं बदलती तकदीर
मंडी चौक होते हुए जब हम ईदगाह की ओर बढ़ते हैं तो छोटे-छोटे घरों में चल रही छोटी-छोटी मशीनों की आवाज कानों में पड़ती है।
अधखुले दरवाजों से दिखती हैं सुर्ख लाल भट्ठियां। वह भट्ठियां, जिनमें पकने वाला प्रोडक्ट बाद में कई देशों में अपनी पहचान बनाता है।
कालिख में सनी इन भट्ठियों के मालिक दरवाजों पर बीड़ी पीते दिखते हैं और फिर सफेद लोहे जैसे तमाम टुकड़ों को आकार देने में जुट जाते हैं। इनके घरों में इतनी भी जगह नहीं कि ठीक से पांव पसार सकें।
ये लोग उस नींव की ईंट हैं जिनकी वजह से इस शहर को पीतल नगरी कहा जाता है। दरअसल इन्हें तो बताया ही नहीं गया कि विकास क्या होता है। चुनाव आते हैं, चले जाते हैं लेकिन इनकी तकदीर कभी नहीं बदली।
अधखुले दरवाजों से दिखती हैं सुर्ख लाल भट्ठियां। वह भट्ठियां, जिनमें पकने वाला प्रोडक्ट बाद में कई देशों में अपनी पहचान बनाता है।
कालिख में सनी इन भट्ठियों के मालिक दरवाजों पर बीड़ी पीते दिखते हैं और फिर सफेद लोहे जैसे तमाम टुकड़ों को आकार देने में जुट जाते हैं। इनके घरों में इतनी भी जगह नहीं कि ठीक से पांव पसार सकें।
ये लोग उस नींव की ईंट हैं जिनकी वजह से इस शहर को पीतल नगरी कहा जाता है। दरअसल इन्हें तो बताया ही नहीं गया कि विकास क्या होता है। चुनाव आते हैं, चले जाते हैं लेकिन इनकी तकदीर कभी नहीं बदली।
इस गांव में कभी बनी ही नहीं सड़क
कालिख के साथ सुबह और चंद रुपयों की गिनती के साथ
शाम होती है इनके जैसे करीब एक लाख परिवारों की। ईदगाह से जब हम चले तो
असलम बोले, हमने तो तकदीर बदलते नहीं देखी।
अजहरुद्दीन भी आए लेकिन मिला क्या? कुछ नहीं। सड़कें काली जरूर हुईं लेकिन हम तो अब भी अपने बीमे और हेल्थ कार्ड के लिए लड़ते ही हैं।
हरिद्वार रोड पर हम कांठ की ओर बढ़े तो बताया गया कि दरियापुर ऐसा गांव है जहां सड़क कभी नहीं बनी। दस किमी दूर गाड़ी खड़ी करनी पड़ी।
पगडंडियों से होते हुए गांव में पहुंचे। लोगों ने बताया कि पोलियो दवा के बहिष्कार का दाग इसलिए लेना पड़ा क्योंकि हमें तो लगता ही नहीं कि हम आजाद हैं।
अजहरुद्दीन भी आए लेकिन मिला क्या? कुछ नहीं। सड़कें काली जरूर हुईं लेकिन हम तो अब भी अपने बीमे और हेल्थ कार्ड के लिए लड़ते ही हैं।
हरिद्वार रोड पर हम कांठ की ओर बढ़े तो बताया गया कि दरियापुर ऐसा गांव है जहां सड़क कभी नहीं बनी। दस किमी दूर गाड़ी खड़ी करनी पड़ी।
पगडंडियों से होते हुए गांव में पहुंचे। लोगों ने बताया कि पोलियो दवा के बहिष्कार का दाग इसलिए लेना पड़ा क्योंकि हमें तो लगता ही नहीं कि हम आजाद हैं।
बाघिन और गन्ना भी बनेगा मुद्दा
अगवानपुर से कांठ, मूंढापांडे से ठाकुरद्वारा तक
पसरा है खेतों का लंबा सन्नाटा। गन्ने का गढ़ होने के बावजूद यहां के किसान
सुविधाओं को तरसते हैं।
सैकड़ों करोड़ रुपयों से अधिक का बकाया अब तक नहीं मिल पाया है। इस बार यहां गन्ना भी मुद्दा बनेगा। जिले ने कभी ऐसा सांसद नहीं चुना जिसे सिर्फ विकास के लिए वोट दिया गया हो।
मुरादाबाद में वोटरों में फिट किया जाता रहा है सिर्फ इक्वेशन। कभी जाति का तो कभी धर्म का और कभी ग्लैमर का।
वाकई बाघिन ने एक के बाद एक मुरादाबाद के क्षेत्रों में दस लोगों को शिकार बना डाला लेकिन उसे पकड़ा तक नहीं जा सका।
करीब एक महीने तक आतंक का साया मुरादाबाद में छाया रहा। लोग बंदूकें लेकर गन्ने की छिलाई करते रहे। वे इन जानवरों से बचाव के ठोस उपाय मांग रहे हैं।
सैकड़ों करोड़ रुपयों से अधिक का बकाया अब तक नहीं मिल पाया है। इस बार यहां गन्ना भी मुद्दा बनेगा। जिले ने कभी ऐसा सांसद नहीं चुना जिसे सिर्फ विकास के लिए वोट दिया गया हो।
मुरादाबाद में वोटरों में फिट किया जाता रहा है सिर्फ इक्वेशन। कभी जाति का तो कभी धर्म का और कभी ग्लैमर का।
वाकई बाघिन ने एक के बाद एक मुरादाबाद के क्षेत्रों में दस लोगों को शिकार बना डाला लेकिन उसे पकड़ा तक नहीं जा सका।
करीब एक महीने तक आतंक का साया मुरादाबाद में छाया रहा। लोग बंदूकें लेकर गन्ने की छिलाई करते रहे। वे इन जानवरों से बचाव के ठोस उपाय मांग रहे हैं।
कांग्रेस से नूरबानो और अल्वी की चर्चा
बन रहे चुनावी परिदृश्य की बात करें तो सपा ने सैयद
तुफैल हसन पर दांव खेला है तो बसपा हाजी याकूब कुरैशी को मैदान में उतार
चुकी है। कांग्रेस के पत्ते नहीं खुले हैं।
फिर भी नूरबानो और राशिद अल्वी के नामों की चर्चा है। भाजपा के पत्ते भी नहीं खुले हैं। वैसे सर्वेश सिंह के नाम की चर्चा है।
मुरादाबाद सीट की बात करें तो यहां हमेशा जाति-धर्म के समीकरण पर चुनाव लड़ा जाता रहा है। पार्टियां फिर यही समीकरण साधने की जुगत में हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. माहेश्वर तिवारी कहते हैं दुर्भाग्य यह है कि 1977 के बाद से अब तक इस शहर को कोई भी ऐसा सांसद नहीं मिला जो संसदीय क्षेत्र के उत्थान के प्रति कटिबद्ध हो। ऐसे में अब एक दमदार व प्रगतिशील सोच वाले सांसद की चाहत दिल में टीस मारती है।
फिर भी नूरबानो और राशिद अल्वी के नामों की चर्चा है। भाजपा के पत्ते भी नहीं खुले हैं। वैसे सर्वेश सिंह के नाम की चर्चा है।
मुरादाबाद सीट की बात करें तो यहां हमेशा जाति-धर्म के समीकरण पर चुनाव लड़ा जाता रहा है। पार्टियां फिर यही समीकरण साधने की जुगत में हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. माहेश्वर तिवारी कहते हैं दुर्भाग्य यह है कि 1977 के बाद से अब तक इस शहर को कोई भी ऐसा सांसद नहीं मिला जो संसदीय क्षेत्र के उत्थान के प्रति कटिबद्ध हो। ऐसे में अब एक दमदार व प्रगतिशील सोच वाले सांसद की चाहत दिल में टीस मारती है।
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